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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


ललिता भुवनेश्वरी को मां कहती थी, मौका मिलने पर उन्हीं के आसपास बनी रहती थी, और चूंकि वह खुद किसी को गैर नहीं समझती थी, इसीलिए उसे भी कोई गैर नहीं समझता था। आठ बरस की थी, जब मां-बाप के मर जाने पर उसे मामा के घर पर आना पड़ा था। तभी से वह छोटी बहन की तरह. शेखर के ही आसपास रहकर, उसी से पढ़- लिखकर, आज इतनी बड़ी हुई है। यह सभी को मालूम है कि ललिता पर शेखर का विशेष स्नेह है, लेकिन वह स्नेह रंग बदलते-बदलते इस समय कहाँ से कहों पहुँच गया है, इसकी खबर किसी को न थी, ललिता को भी नहीं। सभी लोग ललिता को बचपन से ही शेखर के निकट एक सरीखा असीम आदर और प्यार-दुलार पाते देखते आ रहे हैं, और आजतक उसमें कुछ भी किसी को बेजा नहीं जान पड़ा, अथवा यह कहो कि ललिता के सम्बन्ध में शेखर की कोई भी हरकत ऐसी नहीं हो पाई कि उस पर विशेष रूप से किसी की दृष्टि आकृष्ट होती। मगर फिर भी, कभी, किसी दिन किसी ने इसकी कल्पना तक नहीं की कि यह लड़की इस घर की बहू बनकर इस घर में स्थान पा सकती है। यह खयाल न ललिता के घर में किसी का था, और न भुवनेश्वरी ही का।

ललिता ने सोच रक्खा था कि काम खतम कर के शेखर के आने से पहले ही वह चली जायगी, लेकिन अनमनी होने के कारण घड़ी पर नजर नहीं पड़ी, देर हो गई। अचानक दरवाजे के बाहर जूतों की चरमराहट सुनकर सिर उठाकर ही सिटपिटाई हुई ललिता एक किनारे हटकर खड़ी हो गई।

शेखर ने भीतर घुसते ही कहा- अच्छा, तुम हो! कल कितनी रात बीते लौटीं? ललिता ने कुछ जवाब नहीं दिया।

शेखर ने एक गद्दीदार आरामकुर्सी पर हाथ-पैर फैलाकर लेटे-लेटे वही सवाल दोहराया। कहा - लौटना कब हुआ था- दो बजे? तीन बजे? मुँह से बोल क्यों नहीं निकलता? ललिता फिर भी उसी तरह चुपचाप खड़ी रही।

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