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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


ललिता- मेरे बारे में शेखर दादा तुमसे कुछ नहीं पूछते?

काली- नहीं तो-हाँ हाँ, परसों पूछा था- तुम दोपहर को ताश खेलने जाती हो कि नहीं, यही पूछते थे।

ललिता ने घबराकर पूछा- तूने क्या कहा?

काली- यही कह दिया कि तुम दोपहर को रोज चारु दिदिया के घर ताश खेलने जाया करती हो। शेखर दादा ने पूछा- कौन-कौन खेलता है? मैंने कहा- तुम। चारु दीदी, और उनके मामा- अच्छा दिदिया, तुम अच्छा खेलती हो या चारु दीदी के मामा अच्छा खेलते हैं? परोसिन मौसी तो कहती हैं कि तुम्हीं अच्छा खेलती हो- क्यों?

ललिता इसका उत्तर न देकर एकाएक बहुत ही खिजला उठी, और बोली- तू यह सब क्यों कहने लगी कुतिया? तुझे हर एक बात में अपनी टाँग अड़ाने की आदत है। जा, अब मैं तुझे कभी कुछ न दूँगी।

ललिता बिगड़कर चली गई। काली सन्नाटे में आ गई। ललिता के अचानक इस भावान्तर का कोई कारण बेचारी बालिका कुछ भी न समझ सकी।

मनोरमा का ताश खेलना दो दिन से बन्द है; क्योंकि ललिता नहीं आती। मनोरमा पहले ही से मन में यह सन्देह कर रही थी कि ललिता को देखकर गिरीन्द्र उस पर रीझ गया है। उसका यह सन्देह आज अच्छी तरह मजबूत हो गया।

गिरीन्द्र के ये दोर्नो दिन बड़ी बेचैनी से बीते। बहुत ही उत्सुक रहकर और अन्यमनस्क होकर वह दोनों दिन इधर-उधर छटपटाया किया। तीसरे पहर घूमने-फिरने नहीं गया। दम-दम भर पर भीतर आता, और घर भर में यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ चक्कर लगाता रहता। तीसरे दिन दोपहर के वक्त घर में भीतर जाकर उसने बहन से कहा- दिदिया, क्या आज भी खेल न होगा?

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