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परिणीता

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9708

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‘परिणीता’ एक अनूठी प्रणय कहानी है, जिसमें दहेज प्रथा की भयावहता का चित्रण किया गया है।


गुरुचरण ने दम भर चुप रहकर कहा- यह मैं भी जानता हूँ कि आदर-आनन्द करना ही ठीक है। लेकिन भैया, भगवान भी तो सुविचार नहीं करते। मुझ गरीब के घर इस तरह लड़कियों का ढेर क्यों लगा रहे हैं? यह रहने की, झोपड़ी तक तुम्हारे बाप के पास रेहन हो गई है। हो जाय घर रेहन, इसका भी मुझे कुछ दुःख नहीं है शेखर। मगर एक बोझ टला नहीं कि दूसरी चिन्ता खोपड़ी पर सवार हो गई। यही देखो न भैया, मेरी यह ललिता बेटी सोने की देवी-प्रतिमा के समान सुन्दर है। यह बे-मां-बाप की बालिका ऐसी रूप-गुन-आगरी है कि किसी राजा के ही घर की बहू बनने योग्य है। यह रत्न किसी गरीब के घर शोभा नहीं पा सकेगा। तुम्हीं बताओ; मैं प्राण रहते इसे किसी ऐरे-गैरे के गले कैसे बाँध दूँ? जो दुर्लभ और अनमोल कोहनूर हीरा शाहों के ताज की शोभा बढ़ानेवाला है वह तो कोई चीज ही नहीं, उसकी जोड़ के हजारों रत्न भी इस कन्या-रत्न का मूल्य नहीं हो सकते। लेकिन इस रत्न का कदरदान पारखी यहाँ कहाँ- कौन इसका गुणग्राहक है? आजकल तो लोग कन्या के बाप की दौलत ही देखते हैं। इसी से; रुपये-पैसे पास न होने के कारण, विवश होकर मुझे यह रत्न भी किसी गँवार गाहक के गले लगा देना पड़ेगा। तुम्हीं कहो बेटा, उस समथ मेरे हृदय का क्या हाल होगा-कैसी कड़ी चोट लगेगी? तेरह बरस की हो गई है, लेकिन यहाँ तेरह पैसे का भी सुभीता नहीं कि कहीं ब्याह की बातचीत पक्की करूँ।

गुरुचरण की आँखों में आँसू भर आये। शेखर चुप- चाप बैठा सुन रहा था। गुरुचरण ने उसी सिलसिले में कहना शुरू किया-भैया शेखरनाथ, तुम्हीं कहीं देख-भालकर इसका कुछ उपाय करो। देखो, तुम्हारे इष्टमित्र, सहपाठी, जान-पहचान के बहुत-से नवयुवक होंगे; शायद कोई तुम्हारे कहने-सुनने से राजी हो जाय और तुम्हारे द्वारा इस लड़की का उद्धार हो जाय। सुनता हूँ, आजकल अनेकों पढ़े- लिखे लायक लड़के ठहरौनी या प्रण-प्रथा के विरुद्ध हो रहे हैं, और गरीबों की लड़कियों के साथ ब्याह करने लगे हैं। सम्भव है, दैवसंयोग और ईश्वर की कृपा से कहीं कोई वैसा लायक लड़का मिल जाय और तुम्हारे उद्योग से मेरी फाँसी का फन्दा कट जाय। मैं तुम्हें हृदय से आशीर्वाद देता हूँ- भैया, तुम राजा होगे। और अधिक क्या कहूँ बेटा, तुम्हीं लोगों के आसरे-भरोसे यहाँ पड़ा हूँ। तुम्हारे पिताजी भी मुझे अपना छोटा भाई समझते और वैसा ही व्यवहार करते हैं।

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