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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


पत्र पढ़कर तलवलकर बोला, “बाबूजी, यह सारी बातें आपने पहले मुझसे कभी नहीं कही?”

“कहने से क्या आप हमारा साथ देंगे?”

“कैसी बातें कर रहे हैं? मुझे तो आपने सहयोग के लिए आमंत्रित किया नहीं।”

“उसके स्वर में आहत अभिमान की झंकार, अत्यंत स्पष्ट होकर उसके कानों में गूंज उठी। जल्दी से बोला, “इसका कारण है रामदास बाबू! इन कामों में कितना बड़ा दायित्व है और कितनी आशंकाए, यह आप जानते हैं। आप विवाहित हैं। एक पुत्री के पिता हैं, इसलिए इस आग में मैंने आपको बुलाना उचित नहीं समझा।”

“गृहस्थों को क्या देश-सेवा का अधिकार नहीं? जन्मभूमि क्या आप लोगों की है?”

अपूर्व लज्जित होकर बोला, “मैंने तो ऐसा नहीं कहा। मैंने तो केवल यह कहा है कि दूसरी जगह आपकी जिम्मेदारियां अधिक हैं, इसलिए विदेश में इतनी बड़ी विपत्ति में पड़ना उचित नहीं।”

“शायद यही हो। लेकिन पराधीन देश की सेवा करने को तो विपत्ति नहीं कहते अपूर्व बाबू! हिंदूओं में विवाह एक धर्म है। मातृभूमि की सेवा करना उससे बड़ा धर्म है। एक धर्म दूसरे में बाधा देगा, अगर मैं यह जानता तो कभी विवाह न करता।”

उसके चेहरे की ओर देखकर अपूर्व ने प्रतिवाद नहीं किया। मौन हो गया। लेकिन उसने इस तर्क का समर्थन भी नहीं किया। देश के काम में इस व्यक्ति ने अनेक कष्ट सहे हैं। आज भी उसके भीतर का तेज एकदम बुझा नहीं है। सामान्य प्रसंग से ही वह एकदम उत्तेजित हो उठा है। यह सोचते ही अपूर्व श्रद्धा से झुक गया।

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