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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


“हम लोग आ पहुंचे हैं भारती। सावधानी से बैठ जाओ। चोट न लग जाए।” यह कहकर डॉक्टर ने तेजी से धक्का लगाकर छोटी-सी नाव को अंधेरे में नदी के किनारे लगा दिया। भारती को उतारते हुए उन्होंने कहा, “पानी या कीचड़ नहीं है बहिन, तख्ता बिछा है, उसी पर से चली आओ।”

अंधेरे में नीचे पैर रखकर तृप्ति की सांस लेते हुए भारती बोली, “भैया, तुम्हारे हाथों से आत्म-समर्पण करने के समान निर्विघ्न शांति और कहीं नहीं है।”

लेकिन दूसरी ओर से कोई उत्तर नहीं आया। अंधेरे में दोनों के कुछ दूर आगे बढ़ने पर डॉक्टर ने आश्चर्य भरे स्वर में कहा, “लेकिन बात क्या है? बताओ तो? यह क्या विवाहोत्सव का मकान है, न तो बत्तियों की रोशनी है, न कोई हल्ला-गुल्ला ही है। बेहले का सुर भी नहीं। कहीं चले गए हैं क्या यह लोग?”

दोनों सीढ़ी से चढ़कर चुपचाप ज्यों ही ऊपर पहुंचे, खुले द्वार दिखाई दिया शशि-जो बडे ध्यान से अखबार पढ़ रहा था।

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