ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
डॉक्टर ने एक सांस खींचकर कहा, “अहा, कैसा बढ़िया भोजन है। इसका तो स्वाद-गंध तक मैं भूल गया हूं।”
यह बात भारती के हृदय में जाकर बिंध गई। उसे उस रात का सूखा भात और जली मछली याद आ गई।
डॉक्टर ने भोजन शुरू करते हुए कहा, “कवि को नहीं दिया भारती?”
“ला रही हूं,” कहकर उसने प्लेट में भोजन सजाकर शशि के सामने रख दिया और डॉक्टर के सामने बैठकर बोली, “लेकिन सब खा लेना पड़ेगा भैया। फेंक नहीं सकते।”
“नहीं, लेकिन तुम नहीं खाओगी?”
“मैं? कोई भी स्त्री यह सब खा सकती है? तुम्हीं बताओ?”
“भोजन तो ऐसा पकाया है मानो अमृत।”
“इससे अच्छा अमृत बनाकर तो मैं रोजाना खिला सकती हूं भैया।”
डॉक्टर ने अपना बायां हाथ माथे से लगाकर कहा, “क्या करोगी बहिन, भाग्य की बात है। जिसको खिलाना चाहिए वह यह सब खाता ही नहीं है। जो खाएगा उसे एक दिन से अधिक दो दिन खिलाने की चेष्टा करने से ही तुम्हारा सुयश पूरे देश में फैल जाएगा।”
इस बार भारती हंस पड़ी। लेकिन तुरंत स्वयं को संभालकर लज्जित होकर बोली, “तुम्हारी दुष्टता की ज्वाला से हंसी रोकी नहीं जा सकती। लेकिन यह तो तुम्हारा भारी अन्याय है। पेट भर खा-पी चुकने के बाद रुपयों की थैली भी लेकर चले जाओगे क्या?”
डॉक्टर मुंह कौर निगलते हुए बोले, “जरूर, जरूर-आधे रुपए तो चले गए नवतारा के मकान बनाने के खाते में। शेष क्या अहमद अब्दुल्ला साहब की गाड़ी खरीदने के लिए छोड़ जाऊं? तमाशे को सर्वांग सुंदर बनाने के लिए तुमने कोई बुरी राय नहीं दी भारती। ह: ह: ह:।”
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