ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
“देख लेना”, भारती हंसकर बोली, “भैया, क्या मैं और सुमित्रा! स्वर्ग के इंद्रदेव भी अगर उर्वशी, मेनका और रम्भा को बुलाकर कहते कि उस प्राचीन युग के ऋषि-मुनियों के बदले तुम्हें इस युग के सव्यसाची की तपस्या भंग करनी होगी तो मैं निश्चित रूप से कहती हूं भैया कि उन्हें मुंह पर स्याही पोतकर वापस चले जाना पड़ता। रक्त-मांस का हृदय जीता जा सकता है लेकिन पत्थर के साथ क्या लड़ाई चल सकती है? पराधीनता के आग में जलकर तुम्हारा हृदय पत्थर बन गया है।”
डॉक्टर मुस्कराने लगे। भारती की दोनों आंखें श्रद्धा और स्नेह से भर आईं। बोली, “इतना विश्वास न रहने पर क्या मैं इस तरह तुम्हारे सामने आत्म-समर्पण कर सकती थी? मैं नवतारा नहीं हूं। मैं जानती हूं कि मुझसे बड़ी भारी गलती हो गई है। लेकिन इस जीवन में उसके सुधार का कोई दूसरा मार्ग भी नहीं है। एक दिन के लिए भी जिसे मन-ही-मन.....?”
भारती की आंखों से फिर आंसू बहने लगे। झटपट हाथ से उन्हें पोंछकर हंसने की चेष्टा करती हुई बोली, “भैया, क्या लौटने का समय अभी नहीं हुआ? भाटा आने में अभी कितनी देर है?”
डॉक्टर ने दीवार घड़ी की ओर देखकर कहा, “अभी देर है बहिन?' फिर दायां हाथ भारती के सिर पर रखते हुए कहा, “आश्चर्य है, इतनी दुर्दशा में भी बंगाल का यह अमूल्य रत्न अब तक नष्ट नहीं हुआ! जाने दो नवतारा को। भारती तो हम लोगों की है। शशि सारी पृथ्वी पर इसकी जोड़ी नहीं मिलेगी। हजारों सव्यसाचियों में भी शक्ति नहीं है कि एक तुच्छ अपूर्व को ओट करके खड़े हो जाए। अच्छी बात है शशि, तुम्हारी शराब की बोतल कहां है?”
शशि लज्जित होकर बोला, “खरीदी नहीं। मैं अब नहीं पीऊंगा।”
भारती बोली, “तुम्हें याद नहीं, नवतारा ने प्रतिज्ञा कराई थी।”
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