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पथ के दावेदार

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :537
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9710

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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।


कुछ देर बाद बेचैन होकर अपूर्व गरज उठा, “मेरा क्या दोष है। बार-बार सावधन करने पर भी कोई गले में डोरी बांधकर झूले तो उसे मैं किस तरह बचाऊंगा? पत्नी है, लड़की है, घर-गृहस्थी है-जिसे यह होश नहीं, वह मरेगा नहीं तो और कौन मरेगा? और दो वर्ष की सजा भुगतने दो।”

“आप क्या उनकी पत्नी के पास इस समय नहीं जाएंगे!”

अपूर्व बोला, “जाऊंगा क्यों नहीं। लेकिन कल साहब को क्या उत्तर दूंगा। मैं कहे देता हूं भारती, साहब ने एक बात भी कही तो मैं नौकरी छोड़ दूंगा।”

“नौकरी छोड़कर क्या कीजिएगा?”

“घर चला जाऊंगा। इस देश में इन्सान नहीं रहते।”

“उनके उद्धार का प्रयत्न नहीं करेंगे?”

अपूर्व झट बोल उठा, “चलो, किसी अच्छे बैरिस्टर के पास चलें भारती। मेरे पास एक हजार रुपए हैं। क्या इनसे काम न चलेगा? मेरी घड़ी आदि जो चीजें हैं उनसे बेचने पर पांच-छह सौ रुपए मिल सकते हैं।”

भारती बोली, “लेकिन सबसे पहली आवश्यकता है उनकी पत्नी के पास जाने की। मेरे साथ मत चलिए। यहीं से गाड़ी लेकर स्टेशन चले जाइए। उनको क्या चाहिए, क्या अभाव है? कम-से-कम पूछने की जरूरत तो है।” मैं अकेली चली जाऊंगी। आप चले जाइए।”

अपूर्व कुछ हिचककर बोला, “मैं अकेला न जा सकूंगा।”

भारती बोली, “डेरे से तिवारी को साथ ले लेना।”

“नहीं, तुम मेरे साथ चलो।”

“मुझे जरूरी काम है।”

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