ई-पुस्तकें >> पथ के दावेदार पथ के दावेदारशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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हम सब राही हैं। मनुष्यत्व के मार्ग से मनुष्य के चलने के सभी प्रकार के दावे स्वीकार करके, हम सभी बाधाओं को ठेलकर चलेंगे। हमारे बाद जो लोग आएंगे, वह बाधाओं से बचकर चल सकें, यही हमारी प्रतिज्ञा है।
अपूर्व बोला, “आज मैं अपने को पहचान सका हूं। मां के अतिरिक्त इस संसार में मेरा कोई मूल्य नहीं है।”
भारती ने एक पल उसके मुंह की ओर देखकर पूछा, “मां शायद आपको बहुत प्यार करती हैं?”
अपूर्व बोला, “हां। हमेशा से मां का जीवन दु:ख-ही-दु:ख में बीता है। मैं डरता हूं कहीं यह दु:ख और न बढ़ जाए। मेरा आधार मां है। इसीलिए मैं डरपोक हूं। सभी की अश्रद्धा का पात्र हूं।” यह कहकर उसके मुंह से लम्बी सांस निकल गई।
भारती ने कोई उत्तर नहीं दिया। अपूर्व का हाथ पकड़े चुपचाप चलती रही।
अपूर्व ने चिंतित होकर पूछा, “रामदास के परिवार का क्या उपाय करोगी?”
भारती स्वयं कुछ नहीं समझ सकी थी। फिर भी साहस बढ़ाने के लिए बोली, “चलिए तो, जाकर देखेंगे। कुछ-न-कुछ उपाय तो किया ही जाएगा।”
“तुमको शायद वहां रहना पड़े।”
“लेकिन मैं तो ईसाई हूं। उन लोगों के किस काम आऊंगी?”
भारती की यह बात अपूर्व को चुभी।
दोनों जब घर पहुंचे, शाम ढल चुकी थी। इस रात किस तरह क्या करना होगा, यह सोचकर उन लोगों के भय की सीमा नहीं थी। अंदर कदम रखते ही भारती ने देखा, उस ओर की खिड़की के पास कोई आराम कुर्सी पर लेटा हुआ है। देखते ही भारती पहचानकर उल्लसित स्वर में बोल उठी, “डॉक्टर साहब, आप कब आए? सुमित्रा जी से भेंट हुई?”
“नहीं।”
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