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पिया की गली

कृष्ण गोपाल आबिद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :171
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9711

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भारतीय समाज के परिवार के विभिन्न संस्कारों एवं जीवन में होने वाली घटनाओं का मार्मिक चित्रण


और तब आप ही आप एक बड़ी सुहावनी मुस्कान मेरे होंठों पर जाग उठी। उस मुस्कान में इतनी चमक थी, इतनी आभा थी कि मैं स्वयं भी उसे देखकर लजा उठी।

मैं जो आज तक अपनी हँसी अपने तक ही सीमित रखने की आदी थी तब तुम्हारे लिए मुस्कारा उठी। मैंने वे समस्त हँसियाँ तुम्हारे कदमों पर न्योछावर कर दीं।

परन्तु तुम कितने निर्दयी निकले?

कोई इस तरह भी अन्याय करता है? कोई इस तरह भी किसी को हँसना सिखाकर, सारी हँसिया छीन कर ले जाया करता है? मेरा तो दम-कदम तुम्हारे दम से है। मेरा तो संसार तुम ही हो।

जब तुम ही इतना जल्दी भूल गये तो किसके लिए हँसूँ? यह होंठ तो केवल पहली बार तुम्हारे लिए ही हँसे थे। अब तुम्हारी जुदाई में इन पर हँसी आये तो कैसे?

तुम समझते क्यों नहीं? इतने शीघ्र इतना कठोर बिछोह क्यों दिया? नहीं मेरे राजा, अब तो मुझसे सहन नहीं होता। मैं पागल सी हो उठी हूँ। हर समय तुम्हारी वह मनमोहिनी सूरत आँखों के सामने नाचती रहती है। मन किसी काम में लगता नहीं। हर बात में तुम नज़र आते हो।

तुम उसी तरह मेरे बिस्तर पर बैठे मुझे देख रहे हो, मैं जरा भी हिलती हूँ तो कहते हो, "नहीं-नहीं मेरी रानी, इसी तरह बैठी रहो। मुझे अपने-आपको देखने दो।"

तब घण्टों उसी तरह बैठी रहती हूँ।

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