ई-पुस्तकें >> श्रीकान्त श्रीकान्तशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास
कमललता ने लज्जा से कहा, “बढ़ा-चढ़ाकर तो जरूर कहा होगा गुसाईं।” इसके बाद स्मित हास्य के साथ राजलक्ष्मी से कहा, “तुम कुछ खयाल न करना बहन, जो कुछ थोड़ा-बहुत आता है, वह किसी और दिन सुनाऊँगी।”
राजलक्ष्मी ने प्रसन्न होकर कहा, “अच्छा दीदी, तुम्हारी जिस दिन इच्छा हो बुला भेजना, मैं खुद आकर तुम्हारा गाना सुन जाऊँगी।” मुझसे कहा, “तुम्हें कीर्तन सुनना इतना अच्छा लगता है, यह तो तुमने कभी नहीं कहा?”
उत्तर दिया, “तुमसे क्यों कहता? गंगामाटी में बीमार पड़कर जब शय्या पर पड़ा था, तब सूखे और सूने मैदानों की ओर देखते-देखते दोपहर का वक्त कटता था, और दुर्भर संध्या किसी तरह अकेले कटना ही न चाहती थीं...।”
राजलक्ष्मी ने चट से मेरे मुँह को अपने हाथ से दबा दिया। कहा, “अगर और कुछ ज्यादा कहा, तो पैरों में सिर पटककर मर जाऊँगी।” फिर खुद ही अप्रतिभ हो हाथ हटाकर बोली, “कमललता दीदी, अपने बड़े गुसाईंजी से कह आओ बहन, आज बाबाजी महाशय के कीर्तन के बाद ही मैं देवता को गाना सुनाऊँगी।”
कमललता ने संदिग्ध कण्ठ से कहा, “लेकिन बहिन, बाबाजी बड़े टीका-टिप्पणी करने वाले हैं।”
राजलक्ष्मी ने कहा, “भले ही हों, भगवान का नाम तो होगा।” विग्रह मूर्तियों को हाथ से दिखाते हुए कहा, “ये शायद खुश हों। और बाबाजीओं का तो मैं उतना खयाल नहीं करती बहिन, पर मेरे ये दुर्वासा-देवता प्रसन्न हो जाँय तो जान में जान आये!”
“प्रसन्न होने पर लेकिन बख्शीश मिलेगी!”
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