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श्रीकान्त

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :598
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9719

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शरतचन्द्र का आत्मकथात्मक उपन्यास


राजलक्ष्मी ने कहा, “कहती हूँ।” क्षण-भर मेरी ओर निष्पलक नेत्रों से देखकर कहा, “माँ देश चली गयीं। उन दिनों मुझे एक बूढ़ा उस्ताद गाना-बजाना सिखाता था। वह बंगाली था। किसी जमाने में संन्यासी था, पर इस्तीफा देकर फिर संसारी हो गया था। उसके घर में मुसलमान स्त्री थी। वह मुझे नाच सिखाने आती थी। मैं उसे बाबा कहती थी और मुझे सचमुच वह बहुत प्यार करता था। रोकर कहा, “बाबा, तुम मेरी रक्षा करो, यह सब अब मुझसे न होगा।” वह गरीब आदमी था। एकाएक साहस न कर सका। मैंने कहा कि मेरे पास बहुत रुपया है, उससे काफी दिनों तक चल जायेगा। फिर भाग्य में जो बदा होगा, वह होगा। पर अब चलो, भाग चलें। इसके बाद उसके साथ कितनी जगह घूमी- इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली, आगरा, जयपुर, मथुरा- अन्त में इस पटना में आकर आश्रय लिया। आधा रुपया एक महाजन की गद्दी में जमा करा दिया और आधे रुपये से एक मनिहारी और कपड़े की दुकान खोल ली। मकान खरीदकर बंकू को तलाश किया, उसे लाकर स्कूल में भर्ती करा दिया और जीविका के लिए जो कुछ करती थी, वह तो तुमने खुद अपनी आँखों से देखा है।”

उसकी कहानी सुनकर कुछ देर तक स्तब्ध रहा, फिर बोला, “तुम कहती हो इसलिए अविश्वास नहीं होता, पर और कोई कहता तो समझता कि सिर्फ एक मनगढ़न्त झूठी कहानी सुन रहा हूँ।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “मैं शायद झूठ नहीं बोल सकती?”

कहा, “शायद बोल सकती हो, पर मेरा विश्वास है कि मुझसे आज तक नहीं बोलीं।”

“यह विश्वास क्यों है?”

“क्यों? तुम्हें डर है कि झूठी प्रवंचना करने के कारण पीछे कहीं देवता रुष्ट न हो जाँय और तुम्हें दण्ड देने के लिए कहीं मेरा अकल्याण न कर बैठें।”

“मेरे मन की बात तुमने कैसे जान ली?”

“मेरे मन की बात भी तो तुम जान लेती हो?”

“मैं जान सकती हूँ, क्योंकि यह मेरी रात-दिन की भावना है, पर तुम्हारे तो वह नहीं है।”

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