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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728

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समकालीन कहानी संग्रह

गुरू जी ये सच है, मैं जार्ज बर्नार्द शॉ के अनुसार जब कुछ न बन सका तो शिक्षक बन गया परन्तु आप निश्चय रखना मैं अध्यापक बन तो गया लेकिन अध्यापक होकर भी दिखाऊंगा।

अपना आशीर्वाद यथावत बनाए रखना।

आपका शिष्य
राधारमण

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सांकला,
२ अक्टूबर २०१०

प्रिय राधारमण,

उर्द्धोभव:।

तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे जो खुशी और संतोष हुआ वह ऐसा ही था जो एक दीपक द्वारा दूसरे दीपक को प्रज्वलित करके होता है। माता-पिता और गुरू संसार में ऐसे प्राणी हैं जो अपने अनुज को अपने से भी बड़ा देखकर गर्व अनुभव करते हैं क्योंकि उसमंन उनका शारीरिक और वैचारिक अंश होता है।

आधुनिक युग में धन-लोलुपता को त्याग कर तुम ट्यूशन से अलग रहे हो तो मैं तुम्हें अपने से अधिक श्रेष्ठ बनाता हूँ क्योंकि जिन दिनों मैंने ट्यूशन से बचने का फैसला किया था उन दिनों यह कार्य अधिक दुरूह नहीं था। परन्तु आज के भौतिक युग में यह बहुत कठिन कार्य है।

ऐसा नहीं है पूरा शिक्षक समाज आलसी, भ्रष्ट और गैर जिम्मेदार है। यदि ऐसा होता तो शिष्यों का शिक्षकों से विश्वास उठ चुका होता। यूं कहीं-कहीं ऐसा समाचार भी आ जाता है जो गुरू के सम्मान और प्रतिष्ठा पर प्रश्न चिन्ह् खड़ा कर देता है परन्तु उन अध्यापकों की चर्चा नहीं होती जो चुपचाप मनोयोगपूर्वक अपने शिष्यों के सर्वांगीण विकास में लगे रहते हैं।

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