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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728

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समकालीन कहानी संग्रह

ईश्वर सिंह को भी कुछ याद आ गया। ‘सुनो भई हमारी एक बुआ थी। हमारे फूफा भी उनके साथ गाली गलोच, मारना-पीटना, अपमान करना सब करते थे। उनके मरने से पहले बुआ ने अपनी आंख का आपरेशन कराया था। फूफा जी अचानक हार्ट अटैक से गुजर गए। उनके मरने पर शर्मा जी की तरह बुआ ने एक सिकसी भी न निकाली। घर-कुनबे वाली औरतों ने कुछ न कुछ याद दिलाकर उसको रुलाना चाहा तो उसने साफ कह दिया, उस नपूते नै किस लिए रोऊं। सारी उम्र दु:ख देता रहा- कभी सुख की सांस नहीं लैन दी, बताओ फिर किसनै रोऊं, अपनी आंख बनवाएं तीन दिन हुए हैं.... इस रोने पीटने के चक्कर में या भी खराब हो गयी तो सारी उम्र का दु:ख हो जाएगा। उसनै जाना था चला गया, रोने चिल्लाने से कौन सा वापस आ जाएगा.... आसपास बैठी औरतें उसके मुंह की तरफ देखती रहतीं। बुआ की बहन ने तो टोक भी दिया- चुप भी कर, अनाप-शनाप कुछ भी बोले जा रही है, लोकलाज भी कुछ होती है, के नहीं......। उसके बाद वह कुछ बोली नहीं परन्तु बुआ के दिल में एक आह भी नहीं निकली।’

अशोक जी ने कमरे में प्रवेश किया- शर्मा जी तो इतमिनान से सो रहे हैं। साढ़े ग्यारह बजने वाले हैं, अब हमको भी सो जाना चाहिए। फिर कोई कुछ नहीं बोला सब चुपचाप सो गए।

सुबह सुबह पांच बजे उनके कमरे पर दस्तक हुई। आंख मलते हुए तीनों बिस्तर पर उठ बैठे। शर्मा जी द्वार पर खड़े थे। उनको मालूम हो गया था तीनों यहां सो रहे हैं।

‘अशोक जी, पांच बज चुके है। घोड़े बेचकर सो रहे हो क्या... सुबह की सैर के लिए नहीं चलना.....?’

गेट पर शर्मा जी की आवाज सुनकर तीनों चौंक कर उठ खड़े हुए।

‘शर्मा जी, आप...?

‘हाँ, हाँ चलो, घूमने चलते हैं..... ट्रैकसूट पहने पाषाण हृदय शर्मा जी का फिर एक नया रूप देखकर तीनों उनके पीछे पीछे चलने लगे।

 

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