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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728

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समकालीन कहानी संग्रह

अचानक उसे ख्याल आया, आत्महत्या करना क्या इतना सरल है कि चार लाइने लिखो और हो गयी एक पात्र की मौत...। आत्महत्या से पूर्व तो कैसी-कैसी मानसिक यन्त्रणाओं, संघर्षों से गुजरना पड़ता है। अपनी समस्या का समाधान करने के लिए एक-एक रास्ता खोजा जाता है। जिंदा रहने के लिए छोटे से छोटे तिनके का सहारा लिया जाता है और बड़े से बड़े पर्वत को चीरने का प्रयत्न किया जाता है। इसलिए नौजवान प्रेमी को मारना नहीं, बचाना चाहिए।

अपने नायक को मार देना रचनाकार की कोई बुद्धिमता नहीं है। मारना तो सरल है परन्तु लेखक तो सृजनहार है उसे अपने लाडलों को जिंदगी से लड़ने के लिए बार-बार संघर्ष करने के लिए तैयार करना चाहिए।

जीवन में प्रेम ही तो सब कुछ नहीं होता, परिवार, समाज, देश, मानवता सबका अपना अपना कर्ज होता है। इंसान को उनसे उऋण होना ही चाहिए। कर्जवान बनके इस संसार से जाना पाप है अगले जन्म में उनका ऋण चुकाने से अच्छा है इसी जन्म में परिश्रम, संघर्ष करके ब्याज सहित चुकता कर दिया जाए।

इस संसार को अपने उपकारों से ऋणी बनाकर जाए तो कुछ बात है...... धीरे-धीरे उसने फैसला कर लिया इस नौजवान प्रेमी को मारना नहीं जिंदा रखना है।

घड़ी ने सुबह के चार बजे की घंटी बजाई..... कमाल हो गया, आज तो सारी रात का जागरण हो गया..... वह कुर्सी से उठा और एक लम्बी अंगड़ाई लेकर बाथरूम की ओर चला गया। ठण्डे पानी के छींटे मारने के बाद आंखों में कुछ ताजगी आयी। टेबल लैम्प की रोशनी पूरी मेज पर फैली हुई थी। ब्रह्ममुहूर्त में नौजवान को जिंदा रखने का निर्णय उसे अच्छा लगा।

उस नौजवान प्रेमी से आत्महत्या न कराकर कुछ और कराना पडेगा। उस निशक्त दिल के लिए अनेक सेवा के कार्य हैं जिसमें उसका दिल रम जाएगा। समय धीरे-धीरे इस घायल के घाव को भर देगा। ....छी....छी मरना भी कोई काम है। यह तो बड़ी कमजोरी है, पाप है, पलायन है। संघर्षों से जूझना ही सही जीना है।

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