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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728

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समकालीन कहानी संग्रह

सिगरेट पीते पीते उसने योजना बना ली कि सबसे पहले अपने घनिष्ठ मित्र नरेश के पास जाएगा और देखेगा उस के मन में क्या चलता रहता है, हाँ दिव्या को भी पार्क में बुलाया जा सकता है, वह भी कई दिनों से मिलने के लिए उतावली हो रही है.... सिगरेट पीते-पीते उसने सारे दिन की योजना बना ली। किस-किस से मिलना है उनसे क्या-क्या बातें करनी हैं, सब कुछ निश्चित करने के बाद वह स्नान करने के लिए चला गया।

रमन को इतनी सुबह-सुबह घर पर आया देख नरेश चौंक गया- ‘अग्रवाल क्या बात है, सब ठीक-ठाक तो है?’

‘सब कुछ बिल्कुल ठीक है, सुबह सुबह मन हुआ अपने सबसे घनिष्ठ दोस्त से मिला जाए- चुपचाप उसने अपना मोबाइल चालू कर दिया।

‘अच्छा किया, आ बैठ.... तुझे देखे भी कई दिन हो गए थे।’

(सुबह-सुबह घोंचूराम कहां आ मरा, जरूर कोई गरज होगी, बिना मकसद तो कटी उंगली पर पेशाब भी नहीं करता अग्रवाल...)

सब मोबाइल में अंकित हो रहा था।

‘यार नरेश आज मैं बहुत खुश हूँ। सोचता हूँ अपने सारे दोस्तों को पार्टी दूं।’

‘अरे वाह पहले ये बताओ खुशी का समाचार क्या है? दिव्या के साथ सगाई पक्की हो गई क्या....?’

‘अरे नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। ये एक टॉप सीक्रेट है, एक महीने बाद बताऊंगा।’

‘दोस्तों को भी नहीं......।’

‘किसी को भी नहीं......।’

‘ये भी ठीक है, लो चाय पिओ’ नरेश ने चाय का प्याला उसकी ओर बढ़ा दिया।

(मत बताने दो घोंचू को, पार्टी तो मिलेगी, आज आया है ऊँट पहाड़ के नीचे, साले के पांच-सात हजार खर्च न करवा दिए तो मेरा नाम भी नरेश नहीं.... बाप की काली कमाई है... इसे क्या फर्क पड़ता है)

‘तो सायं को सात बजे, पार्टी की व्यवस्था करना, सब दोस्तों को बुलाना तुम्हारा काम है- ये लो दस हजार है - मै चलता हूँ’ कहते हुए रमन बाहर निकल गया।

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