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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728

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समकालीन कहानी संग्रह

पिछले सप्ताह भी नल के कनैक्शन के लिए दो छुट्टियाँ लेनी पड़ी थी। एक सप्ताह शादी में छुट्टी लेनी पड़ी। चार दिन ज्वर ने पकड़ लिया। दफ्तर में क्लोजिंग का भार। सच मानो तो शादी के बाद मैं अपनी बीवी के साथ खुलकर बातें भी नहीं कर पाया। एक तो छोटे से घर में आठ प्राणी बाहर घूमने जाओ तो छुट्टियों की समस्या। गांव में दादी का बुलावा। हो सकता है कि दादी बीमारी का बहाना ही कर रही हो और बहू-पोते को गांव में बुलाना चाहती हो।

गला सूख गया। पानी पीने के लिए उठा, घण्टे ने तीन बजा दिए थे। खिड़की खोली तो धूप के चित्तके दीवार पर ऊपर चले गए थे। बाहर से आती ताजा हवा और सुहाने मौसम को देखकर मन थोड़ा ताजा हुआ। सूरज के सामने बादल आने पर कई बार चित्तकों को अपने अन्दर समेट लेता था। मुझे चित्तके बनने और मिटने का खेल देखना अच्छा लगा और मैं कुछ देर यूँ ही खिड़की के साथ खड़ा रहा।

आईसक्रीम वाला घण्टी बजाता हुआ खिड़की के सामने आ गया। मन हुआ एक आइसक्रीम लेकर गले को तर कर लूँ, लेकिन कोई चुस्की लेते हुए देख लेगा तो क्या सोचेगा, इस ख्याल से मैंने नजर ऊपर से हटा ली। गांव में इन सब बातों के मजे होते थे। कुछ खाओं, कुछ पहनों किसी के टोकने का तो ख्याल ही नहीं आता था।

अचानक मेरी नजरों के सामने गांव घूम गया, कैसा खुला-खुला आकाश, नरम-नरम धरती, हरे-भरे खेत, शीतल अनछुई हवा, फुरसत के दिन.. कितना आनन्द आता था। उसका मन हुआ आश्रम वाले टीबे के रेत में जाकर लोटनी लगाता रहे, रेत उछालता रहे और फिर अंधे तालाब में जाकर सीधी छलांग लगा दे। पानी उछाले, चिल्लाए, डुबकी लगाए और शाम ढ़लने पर घर लोटे तो दादी दहलीज पर बैठी खाने के लिए उसकी प्रतीक्षा में हो। सचमुच ऐसा हो जाए तो कितना आनंद आए।

‘तो इसमें कौन-सी कठिन बात है- मैं स्वयं ही निश्चय करने लगता हूँ। यदि तीन चार दिन की छुट्टियाँ लेकर गांव जाया जाए, और उस वातावरण में जीने की ललक पैदा की जाए तो फिर से वैसा ही आनंद आ सकता है।

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