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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728

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समकालीन कहानी संग्रह

मन तो उनका भी हुआ था कि राजू को जाकर डांटे लेकिन लड़का उनसे लम्बा-तगड़ा हो गया है इसलिए वे मन मसोस कर बैठे ही रहे।

पत्नी ने सुबकते हुए कमरे में प्रवेश किया तो उन्होंने समझाते हुए कहा... धीरज रख राजू की मां... धीरज रख।

‘मुझे राजू की माँ मत कहो... मुझे क्या पता था मैं सांप को दूध पिला रही हूँ। जानते हो आज उसने क्या कहा... पत्नी के स्वर में तल्खी आ गई थी।

‘मैंने सब सुन लिया है भागवान...। वह जाता है तो जाने दे... हमने अपना फर्ज़ पूरा कर दिया। लेकिन तू चिन्ता क्यों करती है मैं अभी जिन्दा हूँ... दिलासा देते हुए उसके कंधे पर हाथ रख दिया था उन्होंने।

देर तक वह सुबकती रही थी और वे उसके फफोलों को सहलाते रहे थे और अन्दर-ही-अन्दर स्वयं भी भविष्य की जोड़-तोड़ में लगे रहे।

धीरे-धीरे वे दफ्तर वालों के लिए भी भारी बनते गये और एक दिन उन्हें आवश्यक सेवा निवृति के अन्तर्गत दफ्तर से अलग कर दिया। वे अब वफादार कुत्ते ये अधिक नहीं थे अपने घर में।

धीरे-धीरे वे लकड़ी के पांव से बाजार तक घूम आते थे या घर में पड़े रहते थे।

एक सुबह उठे तो यकायक उन्हें विश्वास ही न आया। राजू का सामान बाहर खड़ी रेहड़ी में लद रहा था। ‘तो वह पूर्व नियोजित झगड़ा था’- सोचकर उन्हें दुःख हुआ। यह तो उन्होंने समझ लिया था कि झाडू अब बंधी नहीं रह सकती। लेकिन सुबह-सुबह टूट जाएगी ऐसा उन्होंने नहीं सोचा था।

बहू मायके से लाया हुआ और राजू का खरीदा एक-एक सामान छांट रही थी। दीवार से लगी लोहे की कील को निकालते देखा तो उन्हें लगा जैसे किसी ने सीने में दबे वर्षों  के तीर को हिला दिया है।

पत्नी से ये सब सहन न हो रहा था पर वे उसे रोके रहे थे... उसे समझाते रहे थे... पगली जब इतना  किया है तो आखिरी समय में क्यों बुरी बनती है। इन्हीं के लिए तो बनाया था घोंसला... जो लेते हैं ले जाने दे... आखिर में भी तो इन्हीं के पास रहना था।

घर से बाहर निकलते हुए बहू ने तो अवश्य एक उपेक्षापूर्ण दृष्टि उन पर डाली जैसे उनका मुँह चिढ़ा रही हो पर राजू ने एक बार भी पीछे न देखा।

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