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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728

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समकालीन कहानी संग्रह

दोनों ओर से उत्तेजित वाक्य बिखरने लगे। ड्यूटी पर तैनात सिपाही के चेहरे की हवाइयाँ उड़ रही थीं और वह इधर-उधर भाग-भाग कर पार्क के कोने में लाश को तलाश कर रहा था। नौकरी से निकाल दिए जाने का भय उसके चेहरे पर बार-बार आ जा रहा था। सुबह की ठण्डी-ठण्डी हवा में एक मिनट के लिए तो मुश्किल से आंख लगी होगी कि बस लाश गायब हो गई। कोई भूत उठा ले गया होगा - इसमें पुलिस वाले का क्या दोष... भूत प्रेतों के आगे किसकी चलती है। कुछ इसी तरह की बातें अपने बचाव के लिए अब वह सोच रहा था।

तभी वहां आकर एक आदमी ने बताया एक लाश गांव के बाहर पीपल वाले खड्डे में पड़ी है। कहीं उनका तो कोई आदमी नहीं - सोचकर सब एकदम उसी तरफ भाग लिए। कई पुलिस वाले भी डण्डा बजाते उनके पीछे हो दिए। कुछ आवारा कुत्ते जो अपने पंजों से खड्ड में मिट्टी धकेल रहे थे, आदमियों को आता देख भाग गए।

लाश औंधी पड़ी थी। सिपाही भी वहां आ गया था। उसे विश्वास था, जरूर यह लाश सिरड़ी बाबा की ही होगी। भीड़ को इधर-उधर धकेलकर वह खड्ड के पास आया।

‘यह तो उसी सिरड़ी बाबा की लाश है साले ने नाक में दम कर दिया -‘उसके चेहरे पर कुछ निश्चिन्तता छाने लगी थी।

‘पर यहां उसे लाया कौन ...?’

‘हिन्दू ...’

‘मुसलमान’

‘नहीं वे आवारा कुत्ते’ ...

अब भी कुछ दूरी पर सारे कुत्ते समूह में उसी ओर मुँह किए मौन बैठे थे।

खड्ड के चारों ओर एकत्रित आदमी अभी भी अपनी-अपनी टिप्पणी दे रहे थे।

 

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