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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728

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समकालीन कहानी संग्रह

जब सगाई हुई उन दिनों कॉलेज में ही तो पढ़ते थे। सुना था बड़ी मुश्किल से शादी के लिए तैयार हुए थे। तब तो यह तय हुआ था कि शादी एक वर्ष के बाद ही होगी। किन्तु विवाह दो मास बाद ही हो गया। बाद में पता चला था। इनके पिताजी के आग्रह पर ही शादी जल्दी हुई थी क्योंकि इनका देर-देर तक यूनियन के दफ्तर में जाना उन्हें अच्छा न लगता था। उन्होंने सोचा था शादी के बाद गृहस्थी का बोझ पड़ेगा तो कमाई में ध्यान लग जाएगा। लड़की वालों को तो जल्दी होती ही है सो दोनों ओर से दबाव पड़ा था इनको हां कर देनी पड़ी।

शादी की पहली रात ही मुझे अकेली छोड़कर वे किसी मजदूर के जनाजे में शरीक होने के लिए चले गए थें। राज बहुत देर बाद लौटे थे। मुझे भी उस दिन गहरा घाव लगा था और सारे परिवार वाले भी इस बात को लेकर उन पर बहुत बिगड़े थे।

ज्यों-ज्यों दिन बीतते गए उनकी रुचि परिवार से हटकर मजदूरों में लगने लगी थी। धीरे-धीरे मैं उस जीवन को स्वीकार करने लगी थी लेकिन पिताजी के साथ उनकी प्रतिदिन अनबन हो जाती थी।

उस दिन मैं पहले बच्चे की प्रसव-पीड़ा से तड़फ रही थी लेकिन ये सेठ करोड़ीमल की मिल के सामने मजदूरों के साथ नारेबाजी कर रहे थे। उन्हें मजदूरों का हक चाहिए था।

लड़का हुआ था। सबको खुशी थी। लेकिन अगले ही दिन पता लगा राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेने के कारण सेठ करोड़ीमल ने उन्हें अपने कॉलेज से निकलवा दिया तो खुशी का माहौल फीका पड़ गया।

पढ़ाई अधूरी रह गई। फिर इन्होंने पढ़ाई की ओर ध्यान ही नहीं दिया। परन्तु इनका व्यवहार और भी आक्रामक और पैना हो गया। बात-बात पर बिगड़ जाते थे। सारा-सारा दिन यूनियन के कामों में उलझे रहते। बस घर पर तो खाना खाने के लिए आते थे।

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