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तिरंगा हाउस

मधुकांत

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9728

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समकालीन कहानी संग्रह

‘दादा जी ये पतंग कटकर जा रहा था। मैंने इसे पकड़कर दिवार पर चिपका दिया। अब हमारा घर तिरंगा हाऊस बन गया, बताओ कैसा है हमारा तिरंगा हाऊस.....?’

‘अच्छा है बेटे,’ दादा जी ने उसकी पीठ थपथपायी।

’दादी जी आपको कैसा लगा।’

‘क्या बताऊँ बेटा तेरा पापा भगते भी तिरंगे की रट्ट लगाए राखै था तू भी उसी के पैरों पर चल पड़ा’ दादी का स्वर दर्द में डूब गया, भगते जब तेरी उमर का था तब तेरे दादा जी को आजादी के दिन किसी ने झण्डा भेंट किया था। घर आते ही उस झण्डे को भगते ने ले लिया। सारे दिन गांव में झण्डा हाथ में उठाए.... विश्व विजयी तिरंगा प्यारा.... झण्डा ऊँचा रहे हमारा.....। झंडा ऊँचा रहे हमारा .... गाता हुए गली गली घूमता रहा।’

‘सूबेदारनी तुझे वो दिन याद है। 15 अगस्त को अपना भगत सिंह जब बच्चों की परेड करा रहा था... शिक्षा मंत्री आए थे उस कार्यक्रम में.... और जब शिक्षा मंत्री झंडा फहराने लगे तो पोल से गांठ निकलकर झंडा नीचे गिर रहा था तभी अपने भगत सिंह ने स्टेज से कूदकर झंडे को ऊपर ही लपक लिया.... जमीन पर नहीं गिरने दिया। बच्चे खड़े होकर देर तक तालियां बजाते रहे थे। शिक्षा मंत्री को मिला स्मृति चिन्ह उन्होंने भगत सिंह को भेंट कर दिया था।’

‘खूब याद है, वो निशानी तो आज भी मेरे पूजाघर में रखी है। बहू रोज उसको साफ करके चमका देती है।’ दर्द में डूबे दादी के स्वर में उत्साह भर गया।

‘अम्मा आप बताओ आपको कैसा लगा मेरा तिरंगा.....?’

बहुत ही सुंदर..... कृष्णा को आशीर्वाद देते हुए माँ ने उसका माथा चूम लिया। उसका चेहरा गर्व से चमक उठा। ‘माँ जी मैं अभी जाकर सबके लिए खीर पूरी और हलवा बना देती हूँ......। सब मिलकर आजादी का त्यौहार मनाएंगे।’

‘ठीक है बेटी जिसमें सारे खुश हो वैसा ही कर। तुम्हारी सबकी खुशी में मेरी खुशी है...।’ कहते हुए सूबेदारनी की उदासी छिटक गयी।

 

।। समाप्त ।।

 

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