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उर्वशी
उर्वशी
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
भाग - 2
निपुणिका
सिन्धु अचल रहता तो हम क्यों रोते राजमहल में?
जलते क्यों इस भांति भाग्य के दारुण कोपानल में ?
महाराज ने देख उर्वशी को अधीर अकुलाकर,
बाँहों में भर लिया दौड़ गोदी में उसे उठाकर
समा गई उर-बीच अप्सरा सुख-सम्भार-नता-सी,
पर्वत के पंखॉ में सिमटी गिरिमल्लिका-लता-सी।
और प्रेम-पीड़ित नृप बोले, “क्या उपचार करुँ मैं?
सुख की इस मादक तरंग को कहाँ समेट धरु मैं?
गहा चाहता सिन्धु प्राण का कौन अदृश्य किनारा?
छुआ चाहती किसे हृदय को फोड़ रक्त की धारा?
कौन सुरभि की दिव्य बेलि प्राणों में गमक उठी है?
नई तारिका कौन आज मूर्धा पर चमक उठी है?
किस पाटल के गन्ध-विकल दल उड़कर अनिल-लहर में
मन्द-मन्द तिर रहे आज प्राणों के मादक सर में?
सुगम्भीर सुख की समाधि यह भी कितनी निस्तल है?
डूबें प्राण जहाँ तक, रस-ही-रस है, जल-ही-जल है।
प्राणों की मणि! अयि मनोज्ञ मोहिनी! दुरंत विरह में
नहीं झेलता रहा वेदनाएँ क्या-क्या दुस्सह मैं?
दिवा-रात्रि उन्निद पलों में तेरा ध्यान संजोकर
काट दिए आतप, वर्षा, हिमकाल सतत रो-रोकर।
विदा समय तूने देखा था जिस मधुमत्त नयन से,
वह प्रतिमा, वह दृष्टि न भूली कभी एक क्षण मन से।
धरते तेरा ध्यान चाँद्नी मन में छा जाती थी,
चुम्बन की कल्पना मन में सिहरन उपजाती थी।
मेघॉ में सर्वत्र छिपी मेरा मन तू हरती थी,
और ओट लेकर विधु की संकेत मुझे करती थी।
फूल-फूल में यही इन्दु-मुख आकर्षण उपजाकर,
छिप जाता सौ बार बिहँस इगित से मुझे बुलाकर।
रस की स्रोतस्विनी यही प्राणों में लहराती थी,
दाह-दग्ध सैकत को, पर, अभिसिक्त न कर पाती थी।
किंतु, आज आषाढ, घनाली छाई मतवाली है,
मुझे घेरकर खड़ी हो गई नूतन हरियाली है।
प्राणेश्वरी! मिलन-सुख को, नित होकर संग वरें हम,
मधुमय हरियाले निकुंज में आजीवन विचरें हम”
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