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उर्वशी
उर्वशी
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
पुरुरवा
कौन है अंकुश, इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ।
पर, सरोवर के किनारे कंठ में जो जल रही है,
उस तृषा, उस वेदना को जानता हूँ।
आग है कोई, नहीं जो शांत होती;
और खुलकर खेलने से भी निरंतर भागती है।
रूप का रसमय निमंत्रण,
या कि मेरे ही रुधिर की वह्नि,
मुझको शान्ति से जीने न देती।
हर घड़ी कहती, उठो,
इस चन्द्रमा को हाथ से धर कर निचोड़ो,
पान कर लो यह सुधा, मैं शांत हूँगी।
अब नहीं आगे कभी उद्भ्रांत हूँगी।
किन्तु रस के पात्र पर ज्यों ही लगाता हूँ अधर को,
घूँट या दो घूँट पीते ही
न जाने, किस अतल से नाद यह आता।
"अभी तक भी न समझा ?
दृष्टि का जो पेय है, वह रक्त का भोजन नहीं है।
रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है।"
टूट गिरती हैं उमंगें,
बाहुओं का पाश हो जाता शिथिल है।
अप्रतिभ मैं फिर उसी दुर्गम जलधि में ड़ूब जाता,
फिर वही उद्विग्न चिंतन,
फिर वही पृच्छा चिरंतन,
"रूप की आराधना का मार्ग
आलिंगन नहीं तो और क्या है?
स्नेह का सौन्दर्य को उपहार
रस-चुम्बन नहीं तो और क्या है?"
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