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वापसी

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9730

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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास

ब्रिगेडियर उस्मान कुछ देर तक गहरी सोच में डूबा रहा। फिर उसने नज़र उठाई और मेजर रशीद की चमकती हुई आंखों में झांकने लगा। इन आंखों में उसे साहस और विश्वास की रोशनी दिखाई दी। प्रशंसा से उसने अपने नौजवान अफ़सर को देखते हुए कहा-''तुम एक जांबाज़ और क़ाबिल अफ़सर हो। तुम्हारे जैसे बहादुर और तज़ुर्वेकार अफ़सरों को हम किसी भी क़ीमत पर खोना नहीं चाहते।''

''लेकिन सर...'' मेजर रशीद के चेहरे से एकाएक निराशा झलकने लगी।

ब्रिगेडियर उस्मान ने बीच ही में उसकी बात काटते हुए कहा-''घबराओ मत! अगर तुम्हारी यही दिली आरज़ू है, तो उसे पूरा करने में तुम्हारी पूरी मदद की जायेगी...गो एहेड...खुदा हाफिज़!''

ब्रिगेडियर उस्मान ने मुस्कराते हुए उसे अनुमति दे दी और कर्नल रज़ा अली को साथ लेकर कार में जा बैठा। ब्रिगेडियर की फ्लैग कार लहराती हुई, कैम्प से बाहर निकल गई।

मेजर रशीद ने सावधान स्थिति में सैल्यूट के लिए हाथ उठाया और असीम प्रसन्न्ता से न जाने कब तक यूंही खड़ा रहा।

जब वह दफ्तर लौटा, तो लगभग दो पहर रात बीत चुकी थी। उसका मन अपने कमरे में जाने का नहीं था। वहीं दफ्तर की कुर्सी पर बैठकर वह ध्यानपूर्वक क़ैदियों की फ़ाइल का अध्ययन करने लगा। भाग्य उसका मार्ग साफ़ करता जा रहा था। दुश्मन की बाबत बहुत-सी जानकारी उसे हासिल हो गई थी। वह क़ैदियों द्वारा प्राप्त हर सूचना को अपने मस्तिष्क में बैठाता जा रहा था।

1965 की भारत-पाकिस्तान युद्ध की ज्वाला ठंडी पड़ चुकी थी। बमों और तोपों की आवाज़ें समाप्त हो चुकी थीं, परन्तु कभी किसी रैक्की करते जहाज़ की आवाज़ रात के मौन वातावरण को थोड़ा झनझना देती और मेजर रशीद के विचारों की कड़ी थोड़ी देर के लिए भंग हो जाती। लेकिन सन्नाटा होते ही वह उस कड़ी को फिर जोड़ लेता।

ताशकंद समझौते के बाद भारत और पाकिस्तान में युद्ध-विराम हो चुका था। इसी समझौते के अनुसार दोनों देशों को एक-दूसरे के अधिकार में लिये गए क्षेत्रों और क़ैदियों को लौटाया जा रहा था। यह समझौता ऐसी स्थिति में हुआ था जबकि दोनों देशों में किसी की भी विजय, पराजय खुलकर सामने नहीं आई थी। समझौता हो चुका था, किन्तु युद्ध द्वारा उभरी हुई घृणा अभी तक दूर नहीं हो पाई थी। दोनों ही पक्षों को काफी क्षति पहुंची थी। लेकिन कोई भी पक्ष अपना नुकसान स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था।

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