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वीर बालक

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9731

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वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ


विजयके पश्चात् लव ने कहा- 'भैया! तुम्हारी कृपा से मैं इस समर-सागर के पार हुआ। अब इस युद्ध की स्मृति के लिये हम कोई उत्तम चिह्न ले चलें।' दोनों भाई पहले शत्रुघ्न के समीप गये और वहाँ उनके मुकुट में जड़ी हुई बहुमूल्य मणि उन्होंने निकाल ली। इसके पश्चात् लव ने पुष्कल का किरीट उतार लिया। दोनों भाइयों ने उनकी भुजाओं में पड़े मूल्यवान् गहने तथा अस्त्र-शस्त्र भी ले लिये। अब लव ने कहा- 'भैया! मैं इन दोनों बड़े बन्दरों को भी ले चलूँगा। इनको देखकर हमारी माता हँसेगी, मुनिकुमार प्रसन्न होंगे और मेरा भी मनोरंजन होगा।' इतना कहकर दोनों भाइयों में से एक-एक ने सुग्रीव तथा हनुमानजी की पूंछ पकड़ी और उन्हें पूंछ पकड़कर उठाये हुए वे आश्रम की ओर चल पड़े।
अपने पुत्रों को दूर से ही आते देख माता जानकी को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे तो द्वार पर खड़ी इनके सकुशल लौटने की प्रतीक्षा ही कर रही थीं। जब उन्होंने देखा कि उनके कुमार दो वानरों को पूंछ पकड़कर लिये आ रहे हैं, तब उन्हें हँसी आ गयी; लेकिन वानरों को पहचानते ही उन्होंने कहा- 'तुम दोनों ने इन्हें क्यों पकड़ा है? छोड़ो। शीघ्र इनको छोड़ दो। ये लंका को भस्म करनेवाले महावीर हनुमान् हैं और ये वानरराज सुग्रीव हैं। तुमने इनका अनादर क्यों किया?
लव-कुश ने सरलभाव से युद्ध का कारण तथा परिणाम बता दिया। माता जानकी ने कहा- 'पुत्रो! तुम दोनों ने बड़ा अन्याय किया है। वह तो तुम्हारे पिता का ही अश्व है। उसे शीघ्र छोड़ दो और इन वानरों को भी छोड़ दो।
माता की बात सुनकर लव-कुशने कहा- 'माताजी! हमने तो क्षत्रियधर्म के अनुसार ही घोड़े को बाँधा था और युद्ध करनेवाले लोगों को हराया था। महर्षि वाल्मीकि ने हमें यही पढ़ाया है कि धर्मपूर्वक युद्ध करने वाला क्षत्रिय पाप का भागी नहीं होता। अब आप की आज्ञा से हम इन वानरों को तथा अश्व को भी छोड़ देते हैं।
श्रीजानकीजी ने संकल्प किया- 'यदि मैंने मन से भी भगवान् श्रीराम को छोड़कर कभी किसी पुरुष का चिन्तन न किया हो, यदि मेरा चित्त धर्म में अविचल-भाव से स्थिर रहा हो तो युद्ध में घायल, मूर्च्छित तथा मारे गये सब लोग पुन: स्वस्थ एवं जीवित हो जायँ।'

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