नई पुस्तकें >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 2 प्रेमचन्द की कहानियाँ 2प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग
देवदत्त ने पत्री को उठा लिया और द्वार तक वे इस तेजी से आए, मानो पाँव में पर लग गए हैं, परंतु यहाँ उन्होंने अपने को रोका और हृदय में आनंद की उमड़ती हुई तरंग को रोककर कहा- ‘‘यह लीजिए, यह पत्री मिल गई। संयोग की बात है, नहीं तो सत्तर लाख के काग़ज़ दीमकों के आहार बन गए।’’
आकस्मिक सफलता में कभी-कभी संदेह बाधा डालता है। जब ठाकुर ने उस पत्री के लेने को हाथ बढ़ाया तो देवदत्त को संदेह हुआ कि कहीं वह उसे फाड़कर फेंक न दे। यद्यपि यह संदेह निरर्थक था, किंतु मनुष्य कमजोरियों का पुतला है। ठाकुर ने उनके मन के भाव को ताड़ लिया। उसने बेपरवाही से पत्री को लिया और मशाल के प्रकाश में देखकर कहा- ‘‘अब मुझे पूर्ण विश्वास हुआ। यह लीजिए आपका रुपया आपके समक्ष है, आशीर्वाद दीजिए कि मेरे पूर्वजों की मुक्ति हो जाए।’’
यह कहकर उसने अपने कमर से एक थैला निकाला और उसमें से एक-एक हजार के पचहत्तर नोट निकाल कर देवदत्त को दे दिए। पंडितजी का हृदय बड़े वेग से धड़क रहा था। नाटिका तीव्र गति से कूद रही थी। उन्होंने चारों ओर से चौकन्नी दृष्टि से देखा कि कहीं कोई दूसरा तो नहीं खड़ा है और तब काँपते हुए हाथों से नोटों को ले लिया। अपनी उच्चता प्रकट करने की व्यर्थ चेष्टा में उन्होंने नोटों की गणना भी नहीं की। केवल उड़ती हुई दृष्टि से देखकर उन्हें समेटा और जेब में डाल दिया।
वही अमावस्या की रात्रि थी। स्वर्गीय दीपक भी धुँधले हो चले थे, उनकी यात्रा सूर्यनारायण के आने की सूचना दे रही थी। उदयाचल फ़िरोजा बाना पहन चुका था। अस्ताचल में भी हलके स्वेत रंग की आभा दिखाई दे रही थी। पंडित देवदत्त ठाकुर को विदा करके घर में चले। उस समय उनका हृदय उदारता के निर्मल प्रकाश से प्रकाशित हो रहा था। कोई प्रार्थी उस समय उनके घर से निराश नहीं जा सकता था। ‘सत्यनारायण की कथा’ धूमधाम से सुनने का निश्चय हो चुका था। गिरिजा के लिए कपड़े और गहने के विचार ठीक हो गए। अंतःपुर में पहुँचते ही उन्होंने शालिग्राम के सन्मुख मनसा, वाचा, कर्मणा से सिर झुकाया और तब शेष चिट्ठी-पत्रियों को समेटकर उसी ‘मखमली थैले में रख दिया, किंतु अब उनका यह विचार नहीं था कि संभवत: उन मुर्दों में भी कोई जीवित हो उठे। वरन् जीविका से निश्चिंत हो अब वे पैतृक प्रतिष्ठा पर अभिमान कर सकते थे। उस समय वे धैर्य और उत्साह के नशे में मस्त थे। बस, अब मुझे ज़िंदगी में अधिक संपदा की जरूरत नहीं। ईश्वर ने मुझे इतना दे दिया है, इसमें मेरी और गिरिजा की ज़िंदगी आनंद से कट जाएगी। उन्हें क्या खबर थी कि गिरिजा की ज़िंदगी पहले ही कट चुकी है। उनके दिल में यह विचार गुदगुदा रहा था कि जिस समय गिरिजा इस आनंद-समाचार को सुनेगी उस समय अवश्य उठ बैठेगी। चिंता और कष्ट ही ने उसकी ऐसी दुर्गति बना दी है। जिसे कभी भर पेट रोटी नसीब न हुई, जो कभी नैराश्यमय धैर्य और निर्धनता के हृदय विदारक बंधन से मुक्त न हुई, उसकी दशा इसके सिवा और हो ही क्या सकती है? यह सोचते हुए वे गिरिजा के पास गए और अहिस्ता से हिलाकर बोले- ‘‘गिरिजा, आँखें खोलो! देखो, ईश्वर ने तुम्हारी विनती सुन ली और हमारे ऊपर दया की। कैसी तबीयत है?’’
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