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प्रेमचन्द की कहानियाँ 2

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9763

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग


किंतु जब गिरिजा तनिक भी न मिनकी तब उन्होंने चादर उठा दी और उसके मुँह की ओर देखा। हृदय से एक करुणोत्पादक ठंडी आह निकली। वे वहीं सर थाम कर बैठ गए। आँखों से शोणित-बूंद टपक पड़े। आह! क्या यह संपदा इतने महँगे मूल्य पर मिली है? क्या परमात्मा के दरबार से मुझे इस प्यारी जान का मूल्य दिया गया है? ईश्वर, तुम खूब न्याय करते हो। मुझे गिरिजा की आवश्यकता है, रुपयों की आवश्यकता नहीं। यह सौदा बड़ा महँगा है।

अमावस्या की अँधेरी रात गिरिजा के अंधकारमय जीवन की भाँति समाप्त हो चुकी थी। खेतों में हल चलानेवाले किसान ऊँचे और सुहावने स्वर से गा रहे थे। सर्दी से काँपते हुए बच्चे सूर्य देवता से बाहर निकलने की प्रार्थना कर रहे थे। पनघट पर गाँव की अलबेली स्त्रियाँ जमा हो गई थीं-पानी भरने के लिए, हँसने के लिए। कोई घड़े को कुएँ में डाले हुए अपनी पोपली सास की नकल कर रही थी। कोई खंभों से चिपटी हुई अपनी सहेली से मुसकुरा-मुसकुराकर प्रेमरहस्य की बातें करती थी। बूढ़ी स्त्रियाँ रोते हुए पोतों को गोद में लिए अपनी बहुओं को कोस रही थीं कि घंटा-भर हुए अब तक कुएँ से नहीं लौटी, किंतु राजवैद्य लाला शंकरदास अभी तक मीठी नींद ले रहे थे। खाँसते हुए बच्चे और कराहते हुए बूढ़े उनके औषधालय के द्वार पर जमा हो चले थे। इस भीड-भडभाड़ से कुछ दूर हट कर दो-तीन सुंदर किंतु मुर्झाये हुए नवयुवक टहल रहे थे और वैद्यजी से एकांत में कुछ बातें करना चाहते थे। इतने में पंडित देवदत्त नंगे सर, नंगे वदन, आँखें लाल, डरावनी सूरत, काग़ज़ का एक पुलिंदा लिए दौड़ते हुए आए और औषधालय के द्वार पर इतने जोर से हाँक लगाने लगे कि वैद्यजी चौंक पड़े और कहार को पुकारकर बोले कि - दरवाज़ा खोल दे। ये महात्मा बड़ी रात गए किसी बिरादरी की पंचायत से लौटे थे। उन्हें दीर्घ निद्रा का रोग था, जो वैद्यजी के लगातार भाषण और फटकार की औषधियों से भी कम न होता था। आप ऐंडते हुए रूठे और किवाड़ खोलकर हुक्का-चिलम की चिंता में आग ढूँढने चले गए। हकीमजी उठने की चेष्टा कर रहे थे कि सहसा देवदत्त उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए और नोटों का पुलिंदा उनके आगे पटक कर बोले- ‘‘वैद्यजी, ये पचहत्तर हजार के नोट हैं। यह आपका पुरस्कार और आपकी फ़ीस है। आप चलकर गिरिजा को देख लीजिए, और ऐसा कुछ कीजिए कि वह केवल ऐक बार आँखें खोल दे। यह उसकी एक दृष्टि पर न्योछावर है! केवल एक दृष्टि पर! आपको रुपए मनुष्य की जान से प्यारे हैं। वे आपके समक्ष हैं। मुझे गिरिजा की एक चितवन इन रुपयों से कई गुनी प्यारी है।’’

वैद्यजी ने लज्जामय सहानुभूति से देवदत्त की ओर देखा और केवल इतना कहा,  ‘‘मुझे अत्यंत शोक है। मैं सदैव के लिए तुम्हारा अपराधी दूँ किंतु तुमने मुझे शिक्षा दे दी। ईश्वर ने चाहा तो अब ऐसी भूल कदापि न होगी। मुझे शोक है। सचमुच महाशोक है।’’

ये बातें वैद्यजी के अंतःकरण से निकली थीं।

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