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प्रेमचन्द की कहानियाँ 2

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9763

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग


खैर, दुकानदार को पैसे देकर मैं जल्द-जल्द क़दम बढ़ाता हुआ घर की तरफ़ चला पर दो ही चार क़दम चला था कि पीछे से किसी ने पुकारा, ''अजी साहब! अजी देवेंद्र बाबू!''

मैंने पीछे फिरकर कहा, ''आप भूलते हैं साहब! मेरा नाम देवेंद्र बाबू नहीं है।''

उसने जवाब दिया, ''क्यों साहब, आप झूठ क्यों बोलते हैं? मैं आपको खूब पहचानता हूँ। मगर उसे जाने दीजिए। बराहे करम पाँच मिनट ठहरकर मेरी दो बातें सुन लीजिए। थिएटर में जाकर तो आप से मुलाकात होने की नहीं।''

अब मुझे कोई शक न रहा कि यह शख्स मुझे पहचानता है। लाचार खड़ा होकर बोला, ''आप मुझसे क्या चाहते हैं?''

वह कहने लगा, ''मैं एक एक्टर हूँ। बचपन ही से मुझे नाटक करने का शौक है। इतनी उम्र में मैं सभी किस्म के नाटक खेल चुका हूँ। मुझमें एक्ट करने की खास लियाक़त है, मगर कोई जमानती न मिलने के कारण मुझे कलकत्ता में नौकरी न मिली। जब तक कोई मेरी सिफ़ारिश न करे, किसी को क्यों मेरे ऊपर यकीन आएगा! मैंने आपका इतना वक्त नष्ट किया। माफ़ कीजिए। मेरी दरखास्त है कि एक वार मुझे काम देकर देखिए कि यथार्थ में मुझे खेलना आता है या नहीं!''

उसकी बातें सुनने से यह मालूम हो गया कि उसे अभी तक हम लोगों के कश्मीर जाने की खबर नहीं है, मगर कौन जाने कि आधा ही घंटे बाद यह खबर उससे छुपी रहेगी। समझ में न आया कि क्या करूँ? अगर उसे नौकरी न दूँ तो वह जरूर लोगों से इस मुलाक़ात का चर्चा करेगा। फिर तो मेरे लिए डूब मरने का मुकाम होगा। मैंने पूछा, ''तो आप कौन पार्ट अच्छी तरह खेल सकते हैं?''

शायद मारे खुशी के उसने मेरी बातों को नहीं सुना। बोला, ''अजी, मैं बहुत थोड़ी तनख्वाह पर राजी हो जाऊँगा।''

मैंने कहा, ''चलिए थोड़ी दूरी तक बातें करते चलें। अच्छा, आपको काम देने के पहले एक बार आपका इम्तहान जरूरी है कि क्या आप में इस काम का माद्दा भी है या नहीं। आप जानते हैं कि यूनियन थिएटर के मामूली मुलाजिम भी जरूरत पड़ने पर एक्ट कर सकते हैं, तो आपके गाँव में कोई अमेच्योर थिएटर भी नहीं है? क्या कोई ठेके का काम भी नहीं मिलता?''

उसने ठंडी साँस लेकर कहा, ''जी नहीं। यहाँ कोई नहीं मिलता, इस वजह से ही घर बैठा हूँ।''

''मगर आप तो नाटकों की दुनिया से इतनी दूर पड़े हुए हैं।''

''जी हाँ, इसका सबब है कि मैं तनहा नहीं हूँ। मेरी एक छोटी लड़की भी है।''  

''कलकत्ता में भी तो कितने ही ऐक्टर बाल-बच्चों के साथ रहते हैं।''

''जी हाँ, उनकी वैसी ही चलती भी तो फिर मेरे जैसा बेकार आदमी किस बूते पर जाकर कलकत्ता में रहे? ग़रीब आदमी की लड़की जो देखेगा, दुत्कारेगा। मुझे सारी उम्र इस गाँव में काटनी मंजूर है, मगर अपनी लड़की को मौत के मुँह में न डालूँगा। वही मेरी सारी उम्र की कमाई है।''

''हाँ, आपका नाम क्या है?''

''जी, मेरा नाम प्रान पदयान है।''

''तो प्रान बाबू, आपका खेल देखे बगैर तो मैं आपको काम नहीं दे सकता। और आप ही सोचिए, इसमें कोई बेजा बात तो नहीं है?''

''नहीं, बेजा क्या है? तो आप मुझे इत्तला देंगे?''

''हाँ, तो मैं क्या कह रहा था? मेरे पास से आपको खबर मिलने में जरा देर लगेगी। 'अज़मत-ए-कश्मीर' नाटक जब शुरू हो जाए, तो आप एक खत लिखकर मुझे याद दिला दीजिएगा। मैं यहाँ कुछ अर्से तक न रहूँगा। कल सबेरे की गाड़ी से कश्मीर जाऊँगा। अखबारों में आज हम लोगों के कश्मीर जाने की खबर निकल चुकी है। यह किसी पर जाहिर नहीं होना चाहिए कि आप आज मुझे मिले। आपकी बात मुझे याद रहेगी।''

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