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प्रेमचन्द की कहानियाँ 2

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9763

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दूसरा भाग


उसे शायद मेरी बातों का यकीन न आया। वह चुपचाप खड़ा रहा, तब अफ़सोसनाक लहजे में बोला, ''बाबू साहब, आपने मेरे साथ जिस भलमंसी का इज़हार (व्यक्त) किया है, उसका मैं कृतज्ञ रहूँ। मगर आपने मेरे साथ सुलूक क्या किया है? मैं तो जूँ का तूँ फ़ाकामस्त बना रहा।''

''नहीं-नहीं, आप मायूस न हों। मैं बहुत जल्द आपको इत्तला दूँगा।'' मुझे नहीं मालूम था कि भाग्य की विचित्रताएँ उस दिन उसी से दो-चार करेंगी।

मैंने डेरे पर 'आकर देखा कि हेम बाबू गहरी नींद में सो रहे हैं। नाक खर्राटे बजा रही थी। मैंने उन्हें फ़ौरन जगाकर कहा, ''कपड़े वगैरा जल्द समेटकर तैयार हो जाएँ। आज ही यहाँ से भागना पड़ेगा।''

हेम बाबू ने अचंभे में होकर पूछा, ''क्यूँ क्या बात है?''

''बात है मेरा सिर। यहाँ एक कमबख्त छोकरा है जो मुझे पहचानता है। मैं उससे कह आया हूँ कि हम लोग आज ही कश्मीर चले जाएँगे। इसी से कहता हूँ आज चल दें कि कल वह हमें यहाँ न देख पाए।''

हेम बाबू लेटे थे। उठ बैठे और बोले- ''तो हम लोगों को कलकत्ता चलना होगा न?”

''अरे, नहीं-नहीं। यह क्यूँ मुमकिन है? कहीं और चलेंगे।''

''क्यूँ? हम लोग क्या चोर हैं? अच्छा देवेंद्र बाबू इस तरह इधर-उधर मारे-मारे फिरने से क्या यह अच्छा न होगा कि मैं कलकत्ता लौट जाऊँ? वहाँ मैं खूब खबरदारी से घर के दरवाजे बंद करके बैठा रहूँगा। कोई पता न पा सकेगा। यह सबसे अच्छा होगा।''

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