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प्रेमचन्द की कहानियाँ 3

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9764

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसरा भाग


चौधरी- 'तो कल मुँह-अँधेरे चल दें। अगर कहीं श्रृद्धा आ गयी तो फिर गला न छोड़ेगी। बच्चा से कह देंगे कि पंडित से सायत-मिती सब ठीक कर लो।' फिर हँसकर कहा, 'उन्हें तो आप ही जल्दी होगी।'

चौधराइन भी पुराने दिन याद करके मुस्कराने लगी। चौधरी और चौधराइन का मत पाकर कोकिला विवाह का आयोजन करने लगी। कपड़े बनवाये जाने लगे। बरतनों की दूकानें छानी जाने लगीं और गहनों के लिए सुनार के पास 'आर्डर' जाने लगे। लेकिन न मालूम क्यों भगतराम के मुख पर प्रसन्नता का चिह्न तक न था। श्रृद्धा के यहाँ नित्य की भाँति जाता; किंतु उदास, कुछ भूला हुआ-सा बैठा रहता था। घंटों आत्म- विस्मृति की अवस्था में, शून्य दृष्टि से आकाश अथवा पृथ्वी की ओर देखा करता। श्रृद्धा उसे अपने कीमती कपड़े और जड़ाऊ गहने दिखलाती। उसके अंग-प्रत्यंग से आशाओं की स्फूर्ति छलकी पड़ती थी। इस नशे में वह भगतराम की आँखों में छिपे हुए आँसुओं को न देख पाती थी। इधर चौधरी भी तैयारियाँ कर रहे थे। बार-बार शहर आते और विवाह के सामान मोल ले जाते। भगतराम के स्वतंत्र विचारवाले मित्र उसके भाग्य पर ईर्ष्या करते थे। अप्सरा-जैसी सुन्दर स्त्री, कारूँ के खजाने-जैसी दौलत, दोनों साथ ही किसे मयस्सर होते हैं ? किन्तु वह, जो मित्रों की ईर्ष्या, कोकिला की प्रसन्नता, श्रृद्धा की मनोकामना और चौधरी और चौधराइन के आनन्द का कारण था, छिप-छिपकर रोता था, अपने जीवन से दु:खी था। चिराग तले अँधेरा छाया हुआ था। इस छिपे हुए तूफान की किसी को भी खबर न थी; जो उसके हृदय में हाहाकार मचा रहा था।

ज्यों-ज्यों विवाह का दिन समीप आता था, भगतराम की बनावटी उमंग भी ठण्डी पड़ती जाती थी। जब चार दिन रह गये, तो उसे हलका-सा ज्वर आ गया। वह श्रृद्धा के घर भी न जा सका। चौधरी और चौधराइन तथा अन्य बिरादरी के लोग भी आ पहुँचे थे; किन्तु सब-के-सब विवाह की धुन में इतने मस्त थे कि किसी का भी ध्यान उसकी ओर न गया। दूसरे दिन भी वह घर से न निकल सका। श्रृद्धा ने समझा कि विवाह की रीतियों से छुट्टी न मिली होगी। तीसरे दिन चौधराइन भगतराम को बुलाने गई, तो देखा कि वह सहमी हुई विस्फारित आँखों से कमरे के एक कोने की ओर देखता हुआ दोनों हाथ सामने किये, पीछे हट रहा है, मानो अपने को किसी के वार से बचा रहा हो। चौधराइन ने घबराकर पूछा, 'बच्चा, कैसा जी है ? पीछे इस तरह क्यों चले जा रहे हो ? यहाँ तो कोई नहीं है।'

भगतराम के मुख पर पागलों-जैसी अचेतना थी। आँखों में भय छाया हुआ था। भीत स्वर में बोला, 'नहीं अम्माँजी, देखो, वह श्रृद्धा चली आ रही है ! देखो, उसके दोनों हाथों में दो काली नागिनें हैं। वह मुझे उन नागिनों से डसवाना चाहती है ! अरे अम्माँ ! वह नजदीक आ गयी। श्रृद्धा ? श्रृद्धा !! तुम मेरी जान की क्यों बैरिन हो गयी ? क्या मेरे असीम प्रेम का यही परिणाम है ? मैं तो तुम्हारे चरणों पर बलि होने के लिए सदैव तत्पर था। इस जीवन का मूल्य ही क्या है ! तुम इन नागिनों को दूर फेंक दो। मैं यहाँ तुम्हारे चरणों पर लेटकर यह जान तुम पर न्योछावर कर दूँगा। ... हैं, हैं, तुम न मानोगी !'

यह कहकर वह चित गिर पड़ा। चौधराइन ने लपककर चौधरी को बुलाया। दोनों ने भगतराम को उठाकर चारपाई पर लिटा दिया। चौधरी का ध्यान किसी आसेब की ओर गया। वह तुरन्त ही लौंग और राख लेकर आसेब उतारने का आयोजन करने लगे ! स्वयं मन्त्र-तन्त्र में निपुण थे। भगतराम का सारा शरीर ठण्डा था; किन्तु सिर तवे की तरह तप रहा था। रात को भगतराम कई बार चौंककर उठा। चौधरी ने हर बार मन्त्र फूँककर अपने खयाल से आसेब को भगाया। चौधराइन ने कहा, 'क़ोई डाक्टर क्यों नहीं बुलाते ? शायद दवा से कुछ फायदा हो। कल ब्याह और आज यह हाल।'

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