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प्रेमचन्द की कहानियाँ 5

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9766

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पाँचवां भाग


मालूम नहीं आगे चलकर इस निर्दयता का क्या कुफल निकलता; पर सौभाग्य से उसकी नौबत न आई। ईश्वर को मुझे इस अपयश से बचाना मंजूर था। जब वह आँखों में आँसू भरे मेरे पास से चला तो कार्यालय के एक क्लर्क पं. पृथ्वीनाथ से उसकी भेंट हो गई। पंडितजी ने सब हाल पूछा। पूरा वृत्तांत सुन लेने पर बिना किसी आगे-पीछे के उन्होंने 15 रु. निकालकर उसे दे दिये। ये रुपये उन्हें कार्यालय के मुनीम से उधार लेने पड़े। मुझे यह हाल मालूम हुआ, तो हृदय के ऊपर से एक बोझ सा उतर गया। अब वह बेचारा मजे से अपने घर पहुँच जाएगा। यह संतोष मुफ्त ही में प्राप्त हो गया। कुछ अपनी नीचता पर लज्जा भी आई। मैं लम्बे-लम्बे लेखों में दया, मनुष्यता और सद्व्यवहार का उपदेश किया करता था; पर अवसर पड़ने पर साफ जान बचाकर निकल गया। और वह बेचारा क्लर्क, जो मेरे लेखों का भक्त था, इतना उदार और दयाशील निकला! गुड़-गुड़ ही रहे, और चेला शक्कर हो गए! खैर, इसमें भी एक व्यंग्यपूर्ण संतोष था कि मेरे उपदेशों का असर मुझ पर न हुआ, न सही, दूसरों पर हुआ। चिराग के तले अँधेरा रहा, तो क्या हुआ, उसका प्रकाश तो फैल रहा है। पर कहीं बच्चा को रुयये न मिले (और शायद ही मिलें, इसकी बहुत कम आशा है) तो खूब छकेंगे। तब हजरत को आड़े हाथों लूँगा। किन्तु मेरी यह अभिलाषा न पूरी हुई। पाँचवें दिन रुपये आ गए, ऐसी और आँखें खोल देने वाली यातना मुझे कभी नहीं मिली थी। खैरियत यही थी मैंने इस घटना की चर्चा स्त्री से नहीं की थी; नहीं तो मुझे घर में रहना भी मुश्किल हो जाता।

उपयुक्त वृत्तांत लिखकर मैंने एक पत्रिका में भेज दिया। मेरा उद्देश्य केवल यह था कि जनता के सामने कपट-व्यवहार के कुपरिणाम का एक दृश्य रखूँ। मुझे स्वप्न में भी आशा न थी कि इसका कोई प्रत्यक्ष फल निकलेगा। इसी से जब चौथे दिन अनायास मेरे पास 75. का मनीआर्डर पहुँचा, तो मेरे आनंद की सीमा न रही। प्रेषक वही महाशय थे– उमापति। कूपन पर केवल ‘क्षमा’ लिखा हुआ था। मैंने रुपये ले  जाककर पत्नी के हाथों में रख दिए और कूपन दिखाया।

उसने अनमने भाव से कहा– इन्हें ले जाकर यत्न से अपने संदूक में रखो तुम ऐसे लोभी प्रकृति के मनुष्य हो यह मुझे आज ज्ञात हुआ। थोड़े से रुपयों के लिए किसी के पीछे पंजे झाड़कर पड़ जाना सज्जनता नहीं। जब कोई शिक्षित और विचारशील मनुष्य अपने वचन का पालन न करे तो यही समझना चाहिए कि वह विवश है। विवश मनुष्य को बार-बार तकाजों से लज्जित करना भलमनसी नहीं है। कोई मनुष्य, जिसका सर्वथा नैतिक पतन नहीं हो गया है, यथाशक्ति किसी को धोखा नहीं देता। इन रुपयों को तब तक अपने पास नहीं रखूँगी, जब तक उमापति का कोई पत्र न आयगा कि रुपये भेजने में इतना विलम्ब क्यों हुआ।

पर इस समय मैं ऐसी उदार बातें सुनने को तैयार न था; डूबा हुआ धन मिल गया, इसकी खुशी से फूला न समाता था।

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3. आबे-हयात (सुधा-रस)

डॉक्टर घोष एक अजीबो-ग़रीब आदमी थे। एक बार उन्होंने अपने चार प्रतिष्ठित दोस्तों को प्रयोगशाला में मिलने के लिए बुलाया। उनमें से तीन मित्र इतने वृद्ध थे कि उनकी दाढ़ियाँ भी सफेद हो गई थीं। उनके नाम थे- बाबू दयाराम, ठाकुर विक्रमसिंह और लाला करोड़ीमल। चौथी एक बेवा थी, जिनका नाम श्रीमती चंचलकुँवर था। बुढ़ापे ने उनके ज़िस्म पर झुर्रियाँ डाल दी थीं। यह चारों व्यक्ति बहुत उदास और शोकार्वित रहा करते थे। उनकी ज़िंदगियाँ तल्ख हो गई थीं और सबसे बड़ा सितम यही था कि अभी तक जीवित थे।

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