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प्रेमचन्द की कहानियाँ 5

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :220
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9766

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पाँचवां भाग


इस कपट-व्यवहार का मुझ पर वही असर पड़ा, जो साधारणतः स्वाभाविक रूप से पड़ना चाहिए था। कोई ऊँची और पवित्र आत्मा इस छल पर भी अटल रह सकती थी। उसे यह समझकर संतोष हो सकता था कि मैंने अपने कर्त्तव्य को पूरा कर दिया। यदि ऋणी ने ऋण नहीं चुकाया, तो मेरा क्या अपराध। पर मैं इतना उदार नहीं हूँ। यहाँ तो महीनों सिर खपाता हूँ, कलम घिसता हूँ, तब जाकर नगद-नारायण के दर्शन होते हैं।
इसी महीने की बात है। मेरे मंत्रालय में एक नया कंपोजीटर बिहार प्रांत से आया। काम में चतुर जान पड़ता था। मैंने उसे 15 रु. मासिक पर नौकर रख लिया। पहले किसी अँग्रेजी स्कूल में पढ़ता था। असहयोग के कारण पढ़ना छोड़ बैठा था। घरवालों ने किसी प्रकार की सहायता देने से इनकार किया। विवश होकर उसने जीविका के लिए यह पेशा अख्तियार कर लिया था। कोई 17-18 वर्ष की उम्र थी। स्वभाव में गम्भीरता थी। बातचीत बहुत सलीके से करता था। यहाँ आने के तीसरे दिन उसे बुखार आने लगा। दो-चार दिन तो ज्यों-त्यों करके कटे, लेकिन जब बुखार न छूटा तो घबरा गया। घर की याद आई। और कुछ न सही, घरवाले क्या दवा-दर्पन भी न करेंगे। मेरे पास आकर बोला– महाशय मैं बीमार हो गया हूँ। आप कुछ रुपये दे दें, तो घर चला जाऊँ। वहाँ जाते ही रुपयों का प्रबन्ध करके भेंज दूँगा। वह वास्तव में बीमार था। मैं उससे भली-भाँति परिचित भी था। यह भी जानता था कि यहाँ रहकर वह कभी स्वास्थ्य-लाभ नहीं कर सकता। उसे सचमुच सहायता की जरूरत थी, पर मुझे शंका हुई कि कहीं यह भी रुपये हजम न कर जाय। जब एक विचारशील, सुयोग्य विद्वान् पुरुष धोखा दे सकता है। तो ऐसे अर्द्व-शिक्षित नवयुवक से कैसे यह आशा की जाए कि वह अपने वचन का पालन करेगा?

मैं कई मिनट तक घोर संकट में पड़ा रहा। अंत में बोला– भाई, मुझे तुम्हारी दशा पर बहुत दुःख होता है; मगर मैं इस समय कुछ न कर सकूँगा। बिलकुल खाली हाथ हूँ। खेद है।

यह कोरा जवाब सुनकर उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे। वह बोला–आपचाहें तो कुछ-न-कुछ प्रबन्ध अवश्य कर सकते हैं। मैं जाते ही आपके रुपये भेज दूँगा।

मैंने दिल से कहा, यहाँ तो तुम्हारी नीयत साफ है; लेकिन घर पहुँचकर भी यही नीयत रहेगी, इसका क्या प्रमाण है? नीयत साफ रहने पर भी मेरे रुपये दे सकोगे या नहीं, यही कौन जाने? कम-से-कम तुमसे वसूल करने का मेरे पास कोई साधन नहीं। प्रकट में कहा– इसमें मुझे कोई संदेह नहीं। लेकिन खेद है, मेरे पास रुपये नहीं है। हाँ, तुम्हारी जितनी तनख्वाह निकलती हो, उसे ले सकते हो।

उसने कुछ जवाब नहीं दिया। किंकर्त्तव्य-विमूढ़ की तरह एक बार आकाश की ओर देखा और चला गया। मेरे हृदय में कठिन वेदना हुई और स्वार्थपरता पर ग्लानि हुई। पर अन्त को मैंने जो निश्चय किया था। उसी पर स्थिर रहा। इस विचार से मन को संतोष हो गया कि मैं ऐसा कहाँ का धनी हूँ, जो यों रुपये पानी में फेंकता फिरूँ।

यह है उस कपट का परिणाम, जो मेरे कवि-मित्र ने मेरे साथ किया।

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