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प्रेमचन्द की कहानियाँ 6

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9767

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छटा भाग


शिवनाथ- ''आज से तुम दंगलसिंह हो।''

दंगल- ''इस नाम की मरजाद तुम्हारे हाथ है।''

शिवनाथ- ''शक्ल तो तुम्हारी मर्दों की-सी है। दग़ा तो न दोगे?''

दंगल- ''मारूँगा तो कहकर मारूँगा। दग़ा देना मर्दों का काम नहीं है।''

शिवनाथ ने लालसिंह को सारा माल उसी वक्त वापस कर दिया और उसी दिन उन दोनों में उस दोस्ती और वफ़ादारी की बुनियाद पड़ी जो मरते दम तक कायम रही। पहले एक था, अब एक से दो हुए। दोनों रण-बाँकुरे। शिवनाथ ने अकेले जिले में अँधेर मचा रखा था, अब दोनों ने मिलकर तूफ़ान बरपा कर दिया। शिवनाथ और दंगल का नाम सुनकर लोगों की रूह फ़ना हो जाती थी।

तीन साल तक सारे जिले में कोहराम मचा रहा। दोनों डाकू गजब के दिलेर थे। सौ-सौ आदमियों के बीच से यूँ निकल जाते, गोया बिजली कौंध गई। उनके खौफ़ से पुलिस के आदमियों को नींद न आती। थानेदार और पुलिस के इंस्पेक्टर उन्हें नज़राने दिया करते।

एक रोज दोनों एक पहाड़ी पर बैठे हुए थे। शाम हो गई थी। उन्हें दूर से एक आदमी घोड़े पर सवार आता दिखाई दिया। उसके पीछे-पीछे पालकी पर उसकी बीवी भी थी। मैके से विदा कराए लिए आता था। दंगल ने कहा- ''गुरू, यह शिकार अच्छा आ रहा है। इसे हाथ से जाने न देन। चाहिए।''

यह सलाह करके दोनों पहाड़ी से उतरे और सवार से पूछा- ''ठाकुर साहब, कहाँ से आते हो? यहीं ठहर जाओ। आगे डाकू लगते हैं। यहाँ सरे-शाम ही से रास्ता बंद हो जाता है।''

ठाकुर का नाम धनीसिंह था। बोला- ''ठहरना तो मैं भी चाहता हूँ मगर यहाँ ठहरने के लायक कोई जगह नहीं दीखती।''

दंगल- ''इस पेड़ के नीचे कुआँ है, साया है, और क्या चाहिए? आज यहीं ठहरिए।''

धनीसिंह- ''तुम लोग कौन हो?''

दंगल- ''हम भी मुसाफ़िर हैं। आज रात यहीं काटेंगे।''

धनी सिंह- ''अच्छी बात है। यहाँ कोई गाँव नजदीक है न?''

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