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प्रेमचन्द की कहानियाँ 6

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9767

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छटा भाग


दंगल- ''घोड़े से तो उतरो। तुम्हारे आराम का सब इंतेज़ाम हो जाएगा। बंदूक तो बड़ी अच्छी रखते हो। जरा इधर तो बढ़ाना।''

धनीसिंह चकमे में आ गया। बंदूक दंगलसिंह को दे दी। फिर क्या था? शिवनाथ ने धनी सिंह को घोड़े से खींच लिया और उसके हाथ-पैर बाँध दिए। कहारों ने यह कैफ़ियत देखी तो पालकी छोड़ भाग निकले। ठकुराइन ने पालकी का पर्दा उठाकर झाँका तो आँखों में अँधेरा छा गया। धम से कुएँ में कूद पड़ी। धनीसिंह की आँखें खून की तरह सुर्ख हो रही थीं। बोला- ''यारो, यह दगा की मार है।''

दंगल- ''जब तक ज़बान से काम निकले, हम लोग देवी को तकलीफ़ नहीं देते।'' धनीसिह- ''क्या मुझे जीता छोड़े जाते हो?''

दंगल- ''हाँ, खूब चैन करो।''

धनीसिंह- ''पछताओगे, मैं भी ठाकुर हूँ। कभी-न-कभी बदला लूँगा।''

दंगल- ''हमारे एक लाख दुश्मन हैं। तुम एक और सही।''

धनीसिह- ''अच्छा तो खबरदार रहना। तुमने दग़ा की मार मारी है। मैं भी दग़ा की मार मारूँगा।''  

इस वाक़िया के एक महीने बाद खबर उड़ी कि जगतसिंह नाम का एक नया डाकू उठ खड़ा हुआ है और साल-भर के अंदर उसने इस कसरत से डाके मारे कि शिवनाथ और दंगल के कारनामे उसके सामने धूमिल पड़ गए। मगर प्राय: यह नया डाकू क़त्ल और लूट से दूर रहता। वह आँधी की तरह उठता और गाँव को घेर लेता। बंदूक़ की सदाएँ सुनाई देतीं। दो-चार पुराने झोपड़ों में आग लग जाती और वातावरण साफ़ हो जाता। न किसी की जान जाती, न किसी का माल जाता। ये सब लोग कहते कि जगतसिंह ने फलाँ गाँव में डाका मारा, मगर यह कोई नहीं कहता कि नुक़सान क्या हुआ। यह नया डाकू दौलत का भूखा न था, न खून का प्यासा। वह डाकू की शोहरत चाहता था।

दंगल ने एक दिन शिवनाथ से कहा- ''भइया, यह तो एक नया खिलाड़ी पैदा हुआ।''

शिवनाथ- ''बहादुर आदमी है, पूरा वीर।''

दंगल- ''हमारा-उसका मेल हो जाए तो अच्छा।''

शिवनाथ- ''सूबे का सूबा लूट लें।''

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