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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


पौ फटते ही बागीचे से बाहर निकल आई। मालूम नहीं, मेरा हिजाब कहाँ ग़ायब हो गया था। जो शख्स समुंदर में गोता खा चुका हो, उसे ताल-तलैयों का क्या खौफ? मैं जो दरो-दीवार से शरमाती थी, इस वक्त शहर की गलियों में लज्जाहीन चली जा रही थी। और कहाँ? वहाँ जहाँ जिल्लत की क़द्र है, जहाँ किसी पर कोई हँसने वाला नहीं, जहाँ रुसवाई का बाज़ार आरास्ता है। जहाँ हया बिकती है और शर्म लुटती है।

उसके तीसरे दिन बाज़ार-ए-हुस्त के एक नुमायाँ हिस्से में एक ऊँचे वाला-खाने पर बैठी हुई मैं बाजार की सैर कर रही थी। शाम का वक्त था। नीचे सड़क पर आदमियों का ऐसा हुजूम था कि कंधे से कंधा छिलता था। आज सावन का मेला था। लोग साफ़-सुथरे कपड़े पहने आनंद से दरिया की तरफ़ जा रहे थे। हमारे बाजार की बेशकीमत जिस का आज दरिया के किनारे आरास्ता थी। कहीं हसीनों के झूले थे, कहीं सावन के गीत, लेकिन मुझे इस बाजार की सैर किनारे-दरिया से पुरलुत्फ़ मालूम होती थी। ऐसा मालूम होता था कि शहर की और सब राज-पथ बंद हो गई हैं, सिर्फ़ यही तंग गली खुली हुई है और सबकी निगाहें बालाखानों ही की तरफ़ लगी थीं, गोया वो जमीन पर नहीं चल रहे हैं, हवा में उड़ना चाहते हैं। हाँ, तालीम-याफ्ता आदमियों को मैंने इतना बेबाक नहीं पाया। वे भी घूरते थे, लेकिन कनखियों से। अधेड़ उम्र के लोग सबसे बेबाक मालूम होते थे, शायद उनकी जवानी की चिढ़ थी।

बाजार क्या था, एक वसीह थिएटर था। लोग परिहास, ठिठोलियां करते थे। लुत्फ उठाने के लिए नहीं, हसीनों को सुनाने के लिए। कथन किसी दूसरी तरफ़ था, निगाह किसी दूसरी तरफ़। बस, भाड़ों और नक्कालों की मजलिस थी। अकस्मात सईद की फिटन नज़र आई। मैं उस पर बारहा सैर कर चुकी थी। सईद सुन्दर लिबास पहने अकड़ा हुआ बैठा था। ऐसा सज-धज वाला, ऐसा बाँका सुंदर जवान सारे शहर में न था। रूप-रंग से मर्दानापन बरसता था। उसकी निगाह एक बार मेरे वालाखाने की तरफ़ उठी और नीचे झुक गई। उसके चेहरे पर मुर्दनी-सी छा गई, जैसे किसी जहरीले साँप ने काट खाया हो। उसने कोचवान से कुछ कहा। पलभर में फिटन हवा हो गई। उस वक्त उसे. देखकर मुझे जो दिली खुशी हुई, उसके सामने उस जानलेवा दर्द की कोई हक़ीक़त न थी। मैंने जलील होकर उसे जलील कर दिया।

ये कटार कमचियों से कहीं ज्यादा तेज थी। उसकी जुर्रत न थी कि अब मुझसे आँख मिला सके। नहीं, मैंने उसे कारागार का बंदी कर दिया। उसे क़ैदे-उम्र में डाल दिया। इस कैदे-तनहाई से अब उसका निकलना ग़ैर मुमकिन था, क्योंकि उसे अपनी खानदानी गौरव का गरूर था।

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