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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


दूसरे दिन प्रातःकाल खबर मिली कि किसी क़ातिल ने मिर्ज़ा सईद का काम तमाम कर दिया। उसकी लाश उसी बागीचे के गोल कमरे में मिली। सीने में गोली लग गई थी। नौ बजे दूसरी खबर सुनाई दी। ज़रीना को भी किसी ने रात के वक्त क़त्ल कर डाला था। उसका सर तन से जुदा कर दिया गया था। बाद को तहक़ीक़ात से मालूम हुआ कि ये दोनों वारदातें सईद ही के हाथों हुईं। उसने पहले ज़रीना को उसके मकान पर क़त्ल किया और तब अपने घर आकर अपने सीने में गोली मार ली। उस मर्दाना गैरतमंदी ने सईद की मुहब्बत मेरे दिल में ताज़ा कर दी।

शाम के वक्त मैं अपने मकान पर पहुँच गई। अभी मुझे यहाँ से गए हुए सिर्फ़ चार दिन गुज़रे थे, मगर मालूम होता था कि बरसों के बाद आई हूँ। दरो-दीवार पर हसरत छाई हुई थी। मैंने घर में क़दम रखा तो बेअख्तियार सईद की मुस्कराती हुई सूरत आँखों के सामने आकर खड़ी हो गई। वही मर्दाना हुस्न, वही बाँकापन, वही निगाहें। बेअख्तियार आँखें भर आईं और दिल से एक आह-सर्द निकल आई। गम इसका न था कि सईद ने क्यों जान दे दी। नहीं, उसकी अपराधपूर्ण भावहीनता और नामर्दाना हुस्नपरस्ती को मैं क़यामत तक न माफ़ करूँगी। गम यह था कि यह उन्माद उसके सर में क्यूँ समाया। हाँ, इस वक्त दिल की जो कैफ़ियत है इससे अनुमान करती हूँ कि चंद दिनों में सईद की बेवफ़ाई और बेरहमी का जख्म पुर हो जाएगा। अपनी जिल्लत की याद भी शायद मिट जाए, मगर उसकी चंद-रोज़ा मुहब्बत का छाप बाक़ी रहेगा और अब यही मेरी जिंदगी का सहारा है।

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2. खेल

तीसरा पहर हो गया था। किसान अपने खेतों में पहुँच चुके थे। दरख्तों के साए झुक चले थे। ईख के हरे-भरे खेतों में जगह-जगह सारस आ बैठे थे। फिर भी धूप तेज थी और हवा गर्म। बच्चे अभी तक लू के खौफ़ से घरों से न निकलने पाए थे कि यकायक एक झोंपड़े का दरवाजा खुला, और एक चार-पाँच साल के लड़के ने दरवाजे से झाँका। झोंपड़े के सामने नीम के साए में एक बुढ़िया बैठी अपनी कमजोर आँखों पर जोर डाल-डालकर एक टोकरी बुन रही थी। बच्चे को देखते ही उसने पुकारा, ''कहाँ जाते हो फुंदन? जाकर अंदर सोओ, धूप बहुत कड़ी है। अभी तो सब लड़के सो रहे हैं।''

फुंदन ने ठनककर कहा, ''अम्मा तो खेत गोड़ाने गईं। मुझे अकेले घर में डर लगता है।''

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