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प्रेमचन्द की कहानियाँ 13

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9774

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग


संतरी कुछ समीप आकर बोला- ''चल, मैं भी तेरे साथ चलता हूँ। जरा रुक जा।''

झंगी बोली-''मेरे साथ मत आओ। रानी कोठे पर हैं। देख लेंगी।''

संतरी को धोखा देकर चंद्रकुँवरि छिपे दुवार से होती हुई अँधेरे में काँटों से उलझती चट्टानों से टकराती गंगा के किनारे जा पहुँची।

रात आधी से अधिक जा चुकी थी। गंगाजी में संतोष प्रदायिनी शांति विराज रही थी। तरंगें तारों को गोद में लिए सो रही थीं। चारों ओर सन्नाटा था।

रानी नदी के किनारे-किनारे चली जाती थी और मुड़-मुड़ कर पीछे देखती थी। एकाएक एक डोंगी खूँटे से बँधी हुई देख पड़ी। रानी ने उसे ध्यान से देखा तो मल्लाह सोया हुआ था। उसे जगाना, काल को जगाना था। उसने तुरंत रस्सी खोल दी और वह नाव पर सवार हो गई। नाव धीरे-धीरे धार के सहारे चलने लगी, शोक और अंधकार-मय स्वप्न की भाँति जो ध्यान की तरंगों के साथ बहा चला जाता हो। नाव के हिलने से मल्लाह चौंका, उठ बैठा। आँखें मलते-मलते उसने सामने देखा तो पटरे पर एक स्त्री हाथ में डाँड लिए बैठी है। घबराकर पूछा-''तैं कौन है रे? नाव कहाँ लिए जात है?''

रानी हँस पड़ी। भय के अंत को साहस कहते हैं। बोली-''सच बताऊँ या झूठ।''

मल्लाह कुछ भयभीत-सा होकर बोला- ''सच बतावा जाए।''

रानी बोली- ''अच्छा तो सुन। मैं लाहौर की रानी चंद्रकुँवरि हूँ। इसी किले में कैद थी। आज भागी जाती हूँ। मुझे जल्दी बनारस पहुँचा दे। तुझे निहाल कर दूँगी। और यदि शरारत करेगा तो देख, इस कटार से तेरा सिर काट दूँगी। सबेरा होने से पहले मुझे बनारस पहुँचना चाहिए।''

यह धमकी काम कर गई। मल्लाह ने विनीत भाव से अपना कम्बल बिछा दिया और वह तेजी से डाँड चलाने लगा। किनारे के वृक्ष और ऊपर जगमगाते हुए तारे साथ-साथ दौड़ने लगे।

प्रातःकाल चुनार के दुर्ग में प्रत्येक मनुष्य अचंभित और व्याकुल था। संतरी, चौकीदार और लौंड़ियाँ सब सिर नीचे किए दुर्ग के स्वामी के सामने उपस्थित थे। अन्वेषण हो रहा था, परंतु कुछ पता न चलता था।

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