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प्रेमचन्द की कहानियाँ 13

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9774

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग


मृदुला तीव्र कंठ से बोली- बहन, प्रजा की तो हर तरह से मरन हैं अगर दस-बीस आदमी जमा हो जाते, तो पुलिस कहती, हमसे लड़ने आये हैं। डंडे चलाने शुरू करती और अगर कोई आदमी क्रोध में आकर एकाध कंकड़ फेंक देता, तो गोलियाँ चला देती। दस–बीस आदमी भुन जाते। इसलिए लोग जमा नहीं होते; लेकिन जब वह किसान मर गया तो गाँव वालो को तैश आ गया। लाठियाँ ले-लेकर दौड़ पड़े और कांस्टेबलों को घेर लिया। सम्भव है दो-चार आदमियों ने लाठियाँ चलायी भी हों। कांस्टेबलों ने गोलियाँ चलानी शुरू की। दो-तीन सिपाहियों को हल्की चोटें आयीं। उसके बदले में बारह आदमियों की जानें ले ली गयीं और कितनों ही के अंगभंग कर दिये गये। इन छोटे-छोटे आदमियों को इसलिए तो इतने अधिकार दिये गये हैं कि उनका दुरुपयोग करें। आधे गॉँव का कत्लेआम करके पुलिस विजय के नगाड़े बजाती हुई लौट गयी। गाँव वालों की फरियाद कौन सुनता! गरीब हैं, अपंग हैं, जितने आदमियों को चाहो, मार डालो। अदालत ओर हाकिमों से तो उन्होंने न्याय की आशा करना ही छोड़ दिया। आखिर सरकार ही ने तो कांस्टेबलों को यह मुहिम सर करने के लिए भेजा था। वह किसानों की फरियाद क्यों सुनने लगी। मगर आदमी का दिल फरियाद करने किये बगैर नहीं मानता। गांववालों ने अपने शहरों के भाइयों से फरियाद करने का निश्चय किया। जनता और कुछ नहीं कर सकती, हमदर्दी तो करती है। दु:ख-कथा सुनकर आंसू तो बहाती है। दुखियारों को हमदर्दी के आंसू भी कम प्यारे नहीं होते। अगर आस-पास के गाँवों के लोग जमा होकर उनके साथ रो लेते तो गरीबों के आँसू पूँछ जाते; किन्तु पुलिस ने उस गाँव की नाकेबंदी कर रखी थी, चारो सीमाओं पर पहरे बिठा दिये गये थे। यह घाव पर नमक था मारते भी हो और रोने भी नहीं देते। आखिर लोगों ने लाशें उठायीं और शहर वालों को अपनी विपत्ति की कथा सुनाने चले। इस हंगामे की खबर पहले ही शहर में पहुँच गयी थी। इन लाशों को देखकर जनता उत्तेजित हो गयी और जब पुलिस के अध्यक्ष ने इन लाशों का जुलूस निकालने की अनुमति न दी, तो लोग और भी झल्लाये। बहुत बड़ा जमाव हो गया। मेरे बाबूजी भी इसी दल में थे। और मैंने उन्हें रोका- मत जाओ, आज का रंग अच्छा नहीं है। तो कहने लगे- मैं किसी से लड़ने थोड़े ही जाता हूँ। जब सरकार की आज्ञा के विरुद्ध जनाजा चला तो पचास हजार आदमी साथ थे। उधर पाँच सौ सशस्त्र पुलिस रास्ता रोके खड़ी थी- सवार, प्यादे, सार्जंट - पूरी फौज थी। हम निहत्थों के सामने इन नामर्दों को तलवारें चमकाते और झंकारते शर्म भी नहीं आती! जब बार-बार पुलिस की धमकियों पर भी लोग न भागे, तो गोलियाँ चलाने का हुक्म हो गया। घंटे-भर बराबर फैर होते रहे, घंटा-भर तक! कितने मरे, कितने घायल हुए, कौन जानता है। मेरा मकान सड़क पर है। मैं छज्जे पर खड़ी, दोनों हाथों से दिल, थामे, कांपती थी। पहली बाढ़ चलते ही भगदड़ पड़ गयी। हजारों आदमी बदहवास भागे चले आ रहे थे। बहन! वह दृश्य अभी तक आखों के सामने है। कितना भीषण, कितना रोमांचकारी और कितना लज्जास्पद! ऐसा जान पड़ता था कि लोगों के प्राण आँखों से निकले पड़ते हैं; मगर इन भागने वालों के पीछे वीर व्रतधारियों का दल था, जो पर्वत की भांति अटल खड़ा छातियों पर गोलियाँ खा रहा था और पीछे हटने का नाम न लेता था बन्दूकों की आवाजें साफ सुनायी देती थीं और हर धायँ-धायँ के बाद हजारों गलों से जय की गहरी गगन-भेदी ध्वनि निकलती थी। उस ध्वनि में कितनी उत्तेजना थी! कितना आकर्षण! कितना उन्माद! बस, यही जी चाहता था कि जा कर गोलियों के सामने खड़ी हो जाऊँ हँसते-हँसते मर जाऊँ। उस समय ऐसा भान होता था कि मर जाना कोई खेल है। अम्माँ जी कमरे में भान को लिए मुझे बार-बार भीतर बुला रही थीं। जब मैं न गयी, तो वह भान को लिए हुए छज्जे पर आ गयी। उसी वक्त दस-बारह आदमी एक स्ट़ेचर पर हृदयेश की लाश लिए हुए द्वार पर आये। अम्माँ की उन पर नजर पड़ी। समझ गयी। मुझे तो सकता-सा हो गया। अम्माँ ने जाकर एक बार बेटे का देखा, उसे छाती से लगाया, चूमा, आशिर्वाद दिया और उन्मत्त दशा में चौरास्ते की तरफ चली, जहां से अब भी धांय और जय की ध्वनि बारी-बारी से आ रही थी। मैं हतबुद्धि-सी खड़ी कभी स्वामी की लाश को देखती थी, कभी अम्माँ को। न कुछ बोली, न जगह से हिली, न रोयी, न घबरायी। मुसमें जैसे स्पंदन ही न था। चेतना जैसे लुप्त हो गयी हो।

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