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प्रेमचन्द की कहानियाँ 13

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9774

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग


क्षमा- तो क्या अम्माँ भी गोलियों के स्थान पर पहुंच गयीं?

मृदुला- हाँ, यही तो विचित्रता है बहन! बंदूक की आवाजें सुनकर कानों पर हाथ रख लेती थीं, खून देखकर मूर्छित हो ताजी थीं। वही अम्मां वीर सत्याग्रहियों का सफों को चीरती हुई सामने खड़ी हो गयीं और एक ही क्षण में उनकी लाश भी जमीन पर गिर पड़ी। उनके गिरते ही योद्धाओं का धैर्य टूट गया। व्रत का बंधन टूट गया। सभी के सिरों पर खून-सा सवार हो गया। निहत्थे थे, अशक्त थे, पर हर एक अपने अंदर अपार शक्ति का अनुभव कर रहा था पुलिस पर धावा कर दिया। सिपाहियों ने इस बाढ़ को आते-देखा तो होश जाते रहे। जानें लेकर भागे, मगर भागते हुए भी गोलियाँ चलाते जाते थे। भान छज्जे पर खड़ा था, न जाने किधर से एक गोली आकर उसकी छाती में लगी। मेरा लाल वहीं पर गिर पड़ा, सांस तक न ली; मगर मेरी आंखों में अब भी आंसू न थे। मेने प्यारे भान को गोद में उठा लिया। उसकी छाती से खून से के फव्वारे निकल रहे थे। मैंने उसे जो दूध पिलाया था, उसे वह खून से अदा कर रहा था। उसके खून से तर कपड़े पहने हुए मुझे वह नशा हो रहा था जो शायद उसके विवाह में गुलाल से तर रेशमी कपड़े पहनकर भी न होता। लड़कपन, जवानी और मौत! तीनों मंजिलें एक ही हिचकी में तमाम हो गयी। मैंने बेटे को बाप की गोद में लेटा दिया। इतने में कई स्वयंसेवक अम्मां जी को भी लाये। मालूम होता था, लेटी हुई मुस्करा रही है। मुझे तो रोकती रहती थीं ओर खुद इस तरह जाकर आग में कूद पड़ीं, मानो वह स्वर्ग का मार्ग हो! बेटे ही के लिए जीती थीं, बेटे को अकेला कैसे छोड़तीं।

जब नदी के किनारे तीनों लाशें एक ही चिता में रखी गयीं, तब मेरा सकता टूटा, होश आया। एक बार जी में आया चिता में जा बैठूँ, सारा कुनबा एक साथ ईश्वर के दरबार में जा पहुंचे। लेकिन फिर सोचा- तूने अभी ऐसा कौन काम किया है, जिसका इतना ऊँचा पुरस्कार मिले? बहन चिता की लपटों में मुझे ऐसा मालुम हो रहा था कि अम्माँ जी सचमुच भान को गोद में लिए बैठी मुस्करा रहीं हैं और स्वामी जी खड़े मुझसे कह रहे हैं, तुम जाओ और निश्चिंत होकर काम करो। मुझ पर कितना तेज था। रक्त और अग्नि ही में तो देवता बसते हैं।

मैंने सिर उठाकर देखा। नदी के किनारे न जाने कितनी चिताएँ जल रही थीं। दूर से वह चितवली ऐसी मालूम होती थी, मानो देवता ने भारत का भाग्य गढ़ने के लिए भट्टियाँ जलायीं हों।

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