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प्रेमचन्द की कहानियाँ 14

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9775

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग


झगड़े की जड़ कुछ न थी। अम्माँ ने मेरी बहन के घर तीजा भेजने के लिए जिन सामानों की सूची लिखायी, वह पत्नी जी को घर की स्थिति देखते हुए अधिक मालूम हुई। अम्माँ खुद समझदार हैं। उन्होंने थोड़ी-बहुत काँट-छाँट कर दी थी: लेकिन पत्नी जी के विचार से और काँट-छाँट होनी चाहिए थी। पाँच साड़ियों की जगह तीन रहें, तो क्या बुराई है। खिलौने इतने क्या होंगे, इतनी मिठाई की क्या जरूरत! उनका कहना था– जब रोजगार में कुछ मिलता नहीं, दैनिक कार्यों में खींच-तान करनी पड़ती है, दूध-घी के बजट में तकलीफ हो गयी, तो फिर तीजे में क्यों इतनी उदारता की जाये? पहले घर में दिया जला कर तब मसजिद में जलाते हैं। यह नहीं कि मसजिद में तो दिया जला दें और घर अँधेरा पड़ा रहे। इसी बात पर सास-बहू में तकरार हो गयी, फिर शाखें फूट निकलीं। बात कहाँ से कहाँ जा पहुँची, गड़े हुए मुरदे उखाड़े गए। अन्योक्तियों की बारी आयी, व्यंग्य का दौर शुरू हुआ और मौनालंकार पर समाप्त हो गया।

मैं बड़े संकट में था। अगर अम्माँ की तरफ से कुछ कहता हूँ, तो पत्नी जी रोना-धोना शुरू करती हैं, अपने नसीबों को कोसने लगती हैं; पत्नी की-सी कहता हूँ तो ज़नमुरीद की उपाधि मिलती है। इसलिए बारी-बारी से दोनों पक्षों का समर्थन करता जाता था; पर स्वार्थवश मेरी सहानुभूति पत्नी के साथ ही थी। मेरे सिनेमा का बजट इधर साल भर से बिलकुल गायब हो गया था; पान-पत्ते के खर्च में भी कमी करनी पड़ी थी, बाजार की सैर बन्द हो गयी थी। खुल कर तो अम्माँ से कुछ न कह सकता था; पर दिल में समझ रहा था कि ज्यादती इन्हीं की है। दूकान का यह हाल है कि कभी-कभी बोहनी भी नहीं होती। असामियों से टका वसूल नहीं होता, तो इन पुरानी लकीरों को पीट कर क्यों अपनी जान संकट में डाली जाय !

बार-बार इस गृहस्थी के जंजाल पर तबीयत झुँझलाती थी। घर में तीन तो प्राणी हैं और उनमें भी प्रेम भाव नहीं ! ऐसी गृहस्थी में तो आग लगा देनी चाहिए। कभी-कभी ऐसी सनक सवार हो जाती थी कि सबको छोड़-छाड़ कर कहीं भाग जाऊँ। जब अपने सिर पड़ेगी, तब इनको होश आयेगा। तब मालूम होगा कि गृहस्थी कैसे चलती है। क्या जानता था कि यह विपत्ति झेलनी पड़ेगी, नहीं विवाह का नाम ही न लेता। तरह-तरह के कुत्सित भाव मन में आ रहे थे। कोई बात नहीं, अम्माँ मुझे परेशान करना चाहती हैं। बहू उनके पाँव नहीं दबाती, उनके सिर में तेल नहीं डालती, तो इसमें मेरा क्या दोष? मैंने उसे मना तो नहीं कर दिया है ! मुझे तो सच्चा आनन्द होगा, यदि सास-बहू में इतना प्रेम हो जाये; लेकिन यह मेरे वश की बात नहीं कि दोनों में प्रेम डाल दूँ। अगर अम्माँ ने अपनी सास की साड़ी धोयी है, उनके पाँव दबाये हैं, उनकी घुड़कियाँ खायी हैं; तो आज वह पुराना हिसाब बहू से क्यों चुकाना चाहती हैं? उन्हें क्यों नहीं दिखायी देता कि अब समय बदल गया है? बहुएँ अब भयवश सास की गुलामी नहीं करतीं। प्रेम से चाहे उनके सिर के बाल नोच लो; लेकिन जो रोब दिखा कर उन पर शासन करना चाहो, तो वह दिन लद गये।

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