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प्रेमचन्द की कहानियाँ 14

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9775

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौदहवाँ भाग


सारे शहर में जन्माष्टमी का उत्सव हो रहा था। मेरे घर में संग्राम छिड़ा हुआ था। संध्या हो गयी थी; पर सारा घर अँधेरा पड़ा था। मनहूसत छायी हुई थी। मुझे अपनी पत्नी पर क्रोध आया। लड़ती हो, लड़ो; लेकिन घर में अँधेरा क्यों कर रखा है? जाकर कहा– क्या आज घर में चिराग़ न जलेंगे?

पत्नी ने मुँह फुला कर कहा– जला क्यों नहीं लेते। तुम्हारे हाथ नहीं हैं?

मेरी देह में आग लग गयी। बोला– तो क्या जब तुम्हारे चरण नहीं आये थे, तब घर में चिराग़ न जलते थे?

अम्माँ ने आग को हवा दी– नहीं, तब सब लोग अँधेरे ही में पड़े रहते थे।

पत्नी जी को अम्माँ की इस टिप्पणी ने जामे के बाहर कर दिया। बोलीं– जलाते होंगे मिट्टी की कुप्पी! लालटेन तो मैंने नहीं देखी। मुझे भी इस घर में आये दस साल हो गये।

मैंने डाँटा– अच्छा चुप रहो, बहुत बढ़ो नहीं।

‘ओहो ! तुम तो ऐसा डाँट रहे हो, जेसे मुझे मोल लाये हो?’

‘मैं कहता हूँ, चुप रहो !’

‘क्यों चुप रहूँ? अगर एक कहोगे, तो दो सुनोगे।’

‘इसी का नाम पतिव्रत है?’

‘जैसा मुँह होता है, वैसे ही बीड़े मिलते हैं !;

मैं परास्त हो कर बाहर चला आया, और अँधेरी कोठरी में बैठा हुआ, उस मनहूस घड़ी को कोसने लगा, जब इस कुलच्छनी से मेरा विवाह हुआ था। इस अन्धकार में भी दस साल का जीवन सिनेमा चित्रों की भाँति मेरे नेत्रों के सामने दौड़ गया। उसमें कहीं प्रकाश की झलक न थी, कहीं स्नेह की मृदुता न थी।

सहसा मेरे मित्र पंडित जयदेव जी ने द्वार पर पुकारा– अरे, आज यह अँधेरा क्यों कर रखा है जी? कुछ सूझती ही नहीं। कहाँ हो?

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