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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


पूर्णिमा ने उसके ये अन्तिम शब्द सुने ही नहीं या उनका जवाब देने की जरूरत नहीं समझी। उसके कानों में तो जवाब का पहला हिस्सा गूँज रहा था?

उसने बहुत ही दु:खपूर्ण भाव से कहा- तो इसमें मेरा क्या कसूर है? मैं अपनी खुशी से तो जा नहीं रही हूँ? जाना पड़ता है, इसलिए जा रही हूँ।

यह कहते-कहते मारे लज्जा के उसका चेहरा लाल हो गया। जितना उसे कहना चाहिए था, शायद उससे ज्यादा वह कह गयी थी।

मुहब्बत में भी शतरंज की-सी चालें होती हैं। अमृत ने उसकी तरफ इस तरह देखा कि मानो वह इस बात की जाँच करना चाहता है कि इन शब्दों में कुछ अर्थ भी है या नहीं। क्या अच्छा होता कि उसकी आँखों में आर-पार देखने की शक्ति होती! इस तरह तो सभी लड़कियाँ निराश भाव से बात करती हैं। मानो ब्याह होते ही उनकी जान पर आ बनेगी। मगर सभी लड़कियाँ एक-न एक दिन अच्छे-अच्छे गहने और कपड़े पहनकर और पालकी में बैठकर चली जाती हैं। इन बातों से उसको कोई सन्तोष नहीं हुआ।

फिर डरते-डरते बोला- तब तुम्हें मेरी याद क्यों आएगी?

उसके माथे पर पसीना आ गया। उसे ऐसी बेढब शरमिन्दगी हुई कि जी चाहा कि कमरे से बाहर भाग जाऊँ। पूर्णिमा की ओर देखने की हिम्मत भी नहीं हुई। कहीं वह समझ न गयी हो।

पूर्णिमा ने सिर झुकाकर मानो अपने दिल से कहा- तुम मुझे इतना निर्मोही समझते हो! मैं बेकसूर हूँ और मुझसे रूठते हो। तुम्हें इस समय मेरे साथ सहानुभूति होनी चाहिए थी। तुम्हें उचित था कि तुम मुझे ढाढ़स देते। और तुम मुझसे तने बैठे हो। तुम्हीं बतलाओ कि मेरे लिए और कौन-सा दूसरा रास्ता है। जो मेरे अपने हैं, वही मुझे गैर के घर भेज रहे हैं। वहाँ मुझ पर क्या बीतेगी? मेरी क्या हालत होगी? क्या यही गम मेरी जान लेने के लिए काफी नहीं है जो तुम उसमें अपना गुस्सा भी मिलाये देते हो?

उसका गला फिर भर आया। आज पूर्णिमा को इस प्रकार दु:खी और उदास देखकर अमृत को विश्वास हो गया कि इसके अन्दर भी एक छिपी हुई वेदना है। उसका ओछापन और स्वार्थपरता मानो कालिख बनकर उसके चेहरे पर चमकने लगी। पूर्णिमा के इन शब्दों में पूरी सत्यता थी। और साथ ही कितनी फटकार और कितना अपमान भी भरा हुआ था। जो पराये हों उनसे शिकायत ही क्यों करे? अवश्य ही ऐसी अवस्था में उसे पूर्णिमा को ढाढ़स दिलाना चाहिए था। यह उसका कर्तव्य उसे बहुत प्रसन्नता के साथ पूरा करना चाहिए था। पूर्णिमा ने प्रेम का एक नया आदर्श उसके सामने रख दिया था और उसका विवेक इस आदर्श से बचकर नहीं निकलने देता था। इसमें सन्देह नहीं कि प्रेम भी एक स्वार्थ-त्याग है, परन्तु बहुत बड़ा और जिगर को जलाने वाला है।

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