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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


अमृत ने सुना तो उसकी हालत पागलों की-सी हो गई। वह बेतहाशा पूर्णिमा के घर की तरफ दौड़ा, मगर फिर लौट पड़ा। होश ने उसके पैर रोक दिये। वह सोचने लगा कि वहाँ जाने से क्या फायदा? आखिर उसमें उसका कसूर ही क्या है? और किसी का क्या कसूर है? अपने घर आया और मुँह ढँककर लेट रहा। पूर्णिमा चली जाएगी। फिर वह कैसे रहेगा? वह विचलित-सा होने लगा। वह जिन्दा ही क्यों रहे? जिन्दगी में रखा ही क्या है? लेकिन यह भाव भी दूर हो गया। और उसका स्थान लिया उस नि:स्तब्धता ने, जो तूफान के बाद आती है। वह उदासीन हो गया। जब पूर्णिमा जाती ही है, तो वह उसके साथ कोई सम्बन्ध क्यों रखे? क्यों मिले-जुले? और अब पूर्णिमा को उसकी परवाह ही क्यों होने लगी? और परवाह थी ही कब? वह आप ही उसके पीछे कुत्तों की तरह दुम हिलाता रहता था। पूर्णिमा ने तो कभी बात भी नहीं पूछी। और अब उसे क्यों न अभिमान हो? एक लखपति की स्त्री बनने जा रही है! शौक से बने। अमृत भी जिन्दा रहेगा, मरेगा नहीं। यही इस जमाने की वफादारी की रस्म है।

लेकिन यह सारी तेजी दिल के अन्दर-ही-अन्दर थी और निरर्थक थी। भला उसमें इतनी हिम्मत कहाँ थी कि जाकर पूर्णिमा की माँ से कह दे कि पूर्णिमा मेरी है और मेरी ही रहेगी! गजब हो जाएगा। गाँव में आफत मच जाएगी। ऐसी बातें न गाँव की कहानियों में कभी सुनी हैं और न देहातों में कभी देखी हैं?

और पूर्णिमा का यह हाल था कि दिन भर उसका रास्ता देखा करती थी। वह सोचती थी कि क्यों मेरे दरवाजे से होकर निकल जाता है और क्यों अन्दर नहीं आता? कभी रास्ते में मुलाकात हो जाती है तो मानो उसकी परछाहीं से भागता है। वह पानी की कलसी लेकर कुएँ पर खड़ी रहती है और सोचती है कि वह आता होगा। लेकिन वह कहीं दिखाई ही नहीं देता।

एक दिन वह उसके घर गयी और उससे जवाब माँगा। उसने पूछा- तुम आजकल आते क्यों नहीं? बस उसी समय उसका गला भर आया। उसे याद आ गया कि अब वह इस गाँव में थोड़े ही दिनों की मेहमान है।

लेकिन अमृत चुपचाप ज्यों-का-त्यों बैठा रहा। लापरवाही से उसने सिर्फ इतना कहा-इम्तहान पास आ गया है। फुरसत नहीं मिलती।

फिर कुछ ठहरकर उसने कहा-सोचता हूँ कि जब तुम जा ही रही हो...। वह कहना ही चाहता था कि- तो फिर अब मुहब्बत क्यों बढ़ाऊँ! मगर उसे ध्यान आ गया कि बहुत मूर्खता की बात है। अगर कोई रोगी मरने जा रहा है, तो क्या इसी विचार से उसका इलाज छोड़ दिया जाता है कि वह मरेगा ही? इसके विपरीत ज्यों-ज्यों उसकी हालत और भी ज्यादा खराब होती जाती है, त्यों-त्यों लोग और भी अधिक तत्परता से उसकी चिकित्सा करते हैं। और जब उसका अन्तिम समय आ जाता है, तब तो दौड़-धूप की हद ही नहीं रहती। उसने बात का रुख बदलकर कहा- सुना है, वह लोग भी बहुत मालदार हैं।

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