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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


हुजूर हमारे मालिक हैं। अगर हमारी कुछ मदद न हुई तो वहाँ एक मुसलमान भी जिन्दा न बचेगा।

हबीब पाशा इस वक्त कहाँ है।

इस्तखर के किले में हुजूर।

और मुसलमान क्या कर रहे हैं।

हमने ईसाइयों को किले में घेर लिया है।

उन्हीं के साथ हबीब को भी।

हाँ हुजूर, वह हुजूर से बागी हो गए।

और इसलिए मेरे वफादार इस्लाम के खादिमों ने उन्हें कैद कर रखा है। मुमकिन है, मेरे पहुँचते-पहुँचते उन्हें कत्ल भी कर दें। बदजात, दूर हो जा मेरे सामने से। मुसलमान समझते हैं, हबीब मेरा नौकर है और मैं उसका आका हूं। यह गलत है, झूठ है। इस सल्तनत का मालिक हबीब है, तैमूर उसका अदना गुलाम है। उसके फैसले में तैमूर दखलंदाजी नहीं कर सकता। बेशक जजिया मुआफ होना चाहिए। मुझे मजाज नहीं कि दूसरे मजहब वालों से उनके ईमान का तावान लूँ। कोई मजाज नहीं है, अगर मस्जिद में अजान होती है, तो गिरजा में घंटा क्यों न बजे। घंटे की आवाज में कुफ्र नहीं है। काफिर वह है, जो दूसरों का हक छीन ले, जो गरीबों को सताए, दगाबाज हो, खुदगरज हो। काफिर वह नहीं, जो मिट्टी या पत्थर के एक टुकड़े में खुदा का नूर देखता हो, जो नदियों और पहाड़ों में, दरख्तों और झाड़ियों में खुदा का जलवा पाता हो। यह हमसे और तुझसे ज्यादा खुदापरस्त है, जो मस्जिद में खुदा को बंद नहीं समझता ही कुफ्र है। हम सब खुदा के बंदे हैं, सब। बस जा और उन बागी मुसलमानों से कह दे, अगर फौरन मुहासरा न उठा लिया गया, तो तैमूर कयामत की तरह आ पहुँचेगा।

कासिद हतबुद्धि-सा खड़ा ही था कि बाहर खतरे का बिगुल बज उठा और फौजें किसी समर-यात्रा की तैयारी करने लगी।

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