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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


हबीब की आँखों में हँसी थी, अधरों पर संकोच। उसने आहिस्ता से कहा- मंजूर है।

तैमूर ने प्रफुल्लित स्वीर में कहा- खुदा तुम्हें सलामत रखे।

लेकिन अगर आपको मालूम हो जाए कि हबीब एक कच्ची अक्ला की क्वांरी बालिका है तो।

तो वह मेरी बादशाहत के साथ मेरे दिल की भी रानी हो जाएगी।

आपको बिलकुल ताज्जुब नहीं हुआ।

मैं जानता था।

कब से।

जब तुमने पहली बार अपनी जालिम आँखों से मुझे देखा।

मगर आपने छिपाया खूब।

तुम्हीं ने सिखाया। शायद मेरे सिवा यहाँ किसी को यह बात मालूम नहीं।

आपने कैसे पहचान लिया।

तैमूर ने मतवाली आँखों से देखकर कहा- यह न बताऊँगा।

यही हबीब तैमूर की बेगम हमीदों के नाम से मशहूर है।

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3. दीक्षा

जब मैं स्कूल में पढ़ता था, गेंद खेलता था और अध्यापक महोदयों की घुड़कियाँ खाता था, अर्थात् मेरी किशोरावस्था थी, न ज्ञान का उदय हुआ था और न बुद्धि का विकास, उस समय मैं टेंपरेंस एसोसिएशन (नशानिवारणी सभा) का उत्साही सदस्य था। नित्य उसके जलसों में शरीक होता, उसके लिए चन्दा वसूल करता। इतना ही नहीं, व्रतधारी भी था और इस व्रत के पालन का अटल संकल्प कर चुका था। प्रधान महोदय ने मेरे दीक्षा लेते समय जब पूछा- तुम्हें विश्वास है कि जीवन-पर्यंत इस व्रत पर अटल रहोगे?'

तो मैंने निश्शंक भाव से उत्तर दिया- 'हाँ, मुझे पूर्ण विश्वास है।'

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