लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

340 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


प्रधान ने मुस्कराकर प्रतिज्ञा-पत्र मेरे सामने रख दिया। उस दिन मुझे कितना आनंद हुआ था ! गौरव से सिर उठाये घूमता फिरता था। कई बार पिताजी से भी बे-अदबी कर बैठा, क्योंकि वह संध्या समय थकान मिटाने के लिए एक गिलास पी लिया करते थे। मुझे यह असह्य था। कहूँगा ईमान की। पिताजी ऐब करते थे, पर हुनर के साथ। ज्यों ही जरा-सा सरूर आ जाता, आँखों में सुर्खी की आभा झलकने लगती कि ब्यालू करने बैठ जाते- बहुत ही सूक्ष्माहारी थे- और फिर रात-भर के लिए माया-मोह के बंधनों से मुक्त हो जाते। मैं उन्हें उपदेश देता था। उनसे वाद-विवाद करने पर उतारू हो जाता था। एक बार तो मैंने गजब कर डाला था। उनकी बोतल और गिलास को पत्थर पर इतनी जोर से पटका कि भगवान् कृष्ण ने कंस को भी इतनी जोर से न पटका होगा। घर में काँच के टुकड़े फैल गये और कई दिनों तक नग्न चरणों से फिरनेवाली स्त्रियों के पैरों से खून बहा; पर मेरा उत्साह तो देखिए ! पिता की तीव्र दृष्टि की परवा न की। पिता जी ने आकर अपनी संजीवनी-प्रदायिनी बोतल का यह शोक समाचार सुना तो सीधे बाजार गये और एक क्षण में ताक के शून्य-स्थान की फिर पूर्ति हो गयी। मैं देवासुर-संग्राम के लिए कमर कसे बैठा था; मगर पिताजी के मुख पर लेशमात्र भी मैल न आया।

उन्होंने मेरी ओर उत्साहपूर्ण दृष्टि से देखा।

अब मुझे मालूम होता है कि वह आत्मोल्लास, विशुद्ध सत्कामना और अलौकिक स्नेह से परिपूर्ण थी और मुस्करा दिये। उसी तरह मुस्कराये, जैसे कई मास पहले प्रधान महोदय मुस्कराये थे। अब उनके मुस्कराने का आशय समझ रहा हूँ, उस समय न समझ सका। बस, इतनी ही ज्ञान की वृद्धि हुई है। उस मुस्कान में कितना व्यंग्य था, मेरे बाल-व्रत का कितना उपहास और मेरी सरलता पर कितनी दया थी, अब उसका मर्म समझा हूँ !

मैं अपने कालेज में अपने व्रत पर दृढ़ रहा। मेरे कितने ही मित्र संयमशील न थे। मैं आदर्श-चरित्र समझा जाता था। कालेज में उस संकीर्णता का निर्वाह कहाँ। बुद्धू बना दिया जाता, कोई मुल्ला की पदवी देता, कोई नासेह कहकर मजाक उड़ाता ! मित्रगण व्यंग्य-भाव में कहते- 'हाय अफसोस, तूने पी ही नहीं !'

सारांश यह कि यहाँ मुझे उदार बनना पड़ा। मित्रों को कमरे में चुसकियाँ लगाते देखता; और बैठा रहता। भंग घुटती और मैं देखा करता। लोग आग्रहपूर्वक कहते- 'अजी, जरा लो भी।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book