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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


मैंने सोचना शुरू किया, इतने दिनों की तपस्या से मुझे क्या मिल गया? दिन-भर छाती फाड़कर काम करता हूँ, आधी रात को मुँह ढाँपकर सो रहता हूँ। यह भी कोई जिंदगी है? कोई सुख नहीं, मनोरंजन का कोई सामान नहीं; दिन-भर काम करने के बाद टेनिस क्या खाक खेलूँगा? हवाखोरी के लिए भी तो पैरों में जूता चाहिए! ऐसे जीवन को रसमय बनाने के लिए केवल एक ही उपाय है- आत्म-विस्मृति, जो एक क्षण के लिए मुझे संसार की चिंताओं से मुक्त कर दे। मैं अपनी परिस्थिति को भूल जाऊँ, अपने को भूल जाऊँ, जरा हँसूँ, जरा कहकहा मारूँ, जरा मन में स्फूर्ति आये। केवल एक ही बूटी है, जिसमें ये गुण हैं और वह मैं जानता हूँ। कहाँ की प्रतिज्ञा, कहाँ का व्रत, वे बचपन की बातें थीं। उस समय क्या जानता था कि मेरी यह हालत होगी? नवस्फूर्ति का बाहुल्य था, पैरों में शक्ति थी, घोड़े पर सवार होने की क्या जरूरत थी? तब जवानी का नशा था। अब वह कहाँ? यह भावना मेरे पूर्व संचित समय की जड़ों को हिलाने लगी। यह नित्य नयी-नयी युक्तियों से सशक्त होकर आती थी। क्यों, क्या तुम्हीं सबसे अधिक बुद्धिमान् हो? सब तो पीते हैं। जजों को देखो, इजलास छोड़कर जाते और पी आते हैं। प्राचीन काल में ऐसे व्रत निभ जाते थे, जब जीविका इतनी प्राणघातक न थी। लोग हँसेंगे ही न कि बड़े व्रतधारी की दुम बने थे, आखिर आ गये न चक्कर में ! हँसने दो, मैंने नाहक व्रत लिया। उसी व्रत के कारण इतने दिनों की तपस्या करनी पड़ी। नहीं पी तो कौन-सा बड़ा आदमी हो गया, कौन सम्मान पा लिया? पहले किताबों में पढ़ा करता था, यह हानि होती है, वह हानि होती है; मगर कहीं तो नुकसान होते नहीं देखता। हाँ पियक्कड़, मदमस्त हो जाने की बात और है। उस तरह तो अच्छी-से-अच्छी वस्तु का दुरुपयोग भी हानिप्रद होता है। ज्ञान भी जब सीमा से बाहर हो जाता है, तो नास्तिकता के क्षेत्र में पहुँचता है।

पीना चाहिए एकान्त में, चेतना को जागृत करने के लिए, सुलाने के लिए नहीं; बस पहले दिन जरा-जरा झिझक होगी। फिर किसका डर है। ऐसी आयोजना करनी चाहिए कि लोग मुझे जबरदस्ती पिला दें, जिसमें अपनी शान बनी रहे। जब एक दिन प्रतिज्ञा टूट जायेगी, तो फिर मुझे अपनी सफाई पेश करने की जरूरत न रहेगी, घरवालों के सामने भी आँखें नीची न करनी पड़ेंगी।

मैंने निश्चय किया, यह अभिनय होली के दिन हो। इस दीक्षा के लिए इससे उत्तम मुहूर्त कौन होगा? होली पीने-पिलाने का दिन है। उस दिन मस्त हो जाना क्षम्य है। पवित्र होली अगर हो सकती है, तो पवित्र चोरी, पवित्र रिश्वत-सितानी भी हो सकती है।

होली आयी, अबकी बहुत इंतजार के बाद आयी। मैंने दीक्षा लेने की तैयारी शुरू की। कई पीनेवालों को निमन्त्रित किया। केलनर की दूकान से ह्विस्की और शामपेन मँगवायी; लेमनेड, सोडा, बर्फ, गजक, खमीरा, तम्बाकू वगैरह सब सामान मँगवाकर लैस कर दिया। कमरा बहुत बड़ा न था। कानूनी किताबों की आलमारियाँ हटवा दीं, फर्श बिछवा दिया और शाम को मित्रों का इंतजार करने लगा, जैसे चिड़िया पंख फैलाये बहेलियों को बुला रही हो।

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