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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


मित्रगण एक-एक करके आने लगे। नौ बजते-बजते सब-के-सब आ बिराजे। उनमें कई तो ऐसे थे, चुल्लू में उल्लू हो जाते थे, पर कितने ही कुम्भज ऋषि के अनुयायी थे- पूरे समुद्र-सोख, बोतल-की-बोतल गटगटा जायँ और आँखों में सुर्खी न आये ! मैंने बोतल, गिलास और गजक की तस्तरियाँ सामने लाकर रखीं।

एक महाशय बोले- यार, बर्फ और सोडे के बगैर लुत्फ न आयेगा।

मैंने उत्तर दिया- मँगवा रखा है, भूल गया था।

एक- तो फिर बिस्मिल्ला हो।

दूसरा- साकी कौन होगा?

मैं- यह खिदमत मेरे सिपुर्द कीजिए।

मैंने प्यालियाँ भर-भरकर देनी शुरू कीं और यार लोग पीने लगे। हू-हक का बाजार गर्म हुआ; अश्लील हास-परिहास की आँधी-सी चलने लगी; पर मुझे कोई न पूछता था। खूब अच्छा उल्लू बना ! शायद मुझसे कहते हुए सकुचाते हैं। कोई मजाक से भी नहीं कहता, मानो मैं वैष्णव हूँ। इन्हें कैसे इशारा करूँ? आखिर सोचकर बोला- मैंने तो कभी पी ही नहीं।

एक मित्र- क्यों नहीं पी? ईश्वर के यहाँ आपको इसका जवाब देना पड़ेगा !

दूसरा- फरमाइए जनाब, फरमाइए, फरमाइए, क्या जवाब दीजिएगा। मैं ही उसकी तरफ से पूछता हूँ- क्यों नहीं पीते?

मैं- अपनी तबीयत, नहीं जी चाहता।

दूसरा- यह तो कोई जवाब नहीं। कोदो देकर वकालत पास की थी क्या?

तीसरा- जवाब दीजिए, जवाब। दीजिए, दीजिए। आपने समझा क्या है, ईश्वर को आपने ऐसा-वैसा समझ लिया है क्या?

दूसरा- क्या आपको कोई धार्मिक आपत्ति है?

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