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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


मैंने कहा- हो सकता है।

तीसरा- वाह रे धर्मात्मा ! क्यों न हो, आप बड़े धर्मात्मा हैं। जरा आपकी दुम देखूँ?

मैं- क्या धर्मात्मा आदमियों के दुम होती है?

चौथा- और क्या, किसी के हाथ की, किसी के दो हाथ की। आप हैं किस फेर में। दुमदारों के सिवा आज धर्मात्मा है ही कौन? हम सब पापात्मा हैं।

तीसरा- धर्मात्मा वकील, ओ हो, धर्मात्मा वेश्या, ओ हो !

दूसरा- धार्मिक आपत्ति तो आपको हो ही नहीं सकती। वकील होना धार्मिक विचारों से शून्य होने का चिह्न है।

मैं- भाई, मुझे सूट नहीं करती?

तीसरा- अब मार लिया, मूजी को मार लिया, आपको सूट नहीं करती। मैं सूट करा दूँ?

दूसरा- क्या किसी डॉक्टर ने मना किया है?

मैं- नहीं।

तीसरा- वाह वाह ! आप खुद ही डॉक्टर बन गये। अमृत आपको सूट नहीं करता। अरे धर्मात्माजी, एक बार पी के देखिए।

दूसरा- मुझे आपके मुँह से यह सुनकर आश्चर्य हुआ। भाईजी, यह दवा है, महौषधि है, यही सोम-रस है। कहीं आपने टेंपरेंस की प्रतिज्ञा तो नहीं ले ली है।

मैं- मान लीजिए, ली हो, तो?

तीसरा- तो आप बुद्धू हैं, सीधे-सीधे कोरे बुद्धू !

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