कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
मैंने कहा- हो सकता है।
तीसरा- वाह रे धर्मात्मा ! क्यों न हो, आप बड़े धर्मात्मा हैं। जरा आपकी दुम देखूँ?
मैं- क्या धर्मात्मा आदमियों के दुम होती है?
चौथा- और क्या, किसी के हाथ की, किसी के दो हाथ की। आप हैं किस फेर में। दुमदारों के सिवा आज धर्मात्मा है ही कौन? हम सब पापात्मा हैं।
तीसरा- धर्मात्मा वकील, ओ हो, धर्मात्मा वेश्या, ओ हो !
दूसरा- धार्मिक आपत्ति तो आपको हो ही नहीं सकती। वकील होना धार्मिक विचारों से शून्य होने का चिह्न है।
मैं- भाई, मुझे सूट नहीं करती?
तीसरा- अब मार लिया, मूजी को मार लिया, आपको सूट नहीं करती। मैं सूट करा दूँ?
दूसरा- क्या किसी डॉक्टर ने मना किया है?
मैं- नहीं।
तीसरा- वाह वाह ! आप खुद ही डॉक्टर बन गये। अमृत आपको सूट नहीं करता। अरे धर्मात्माजी, एक बार पी के देखिए।
दूसरा- मुझे आपके मुँह से यह सुनकर आश्चर्य हुआ। भाईजी, यह दवा है, महौषधि है, यही सोम-रस है। कहीं आपने टेंपरेंस की प्रतिज्ञा तो नहीं ले ली है।
मैं- मान लीजिए, ली हो, तो?
तीसरा- तो आप बुद्धू हैं, सीधे-सीधे कोरे बुद्धू !
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