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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


इधर तो मेरा यह बुरा हाल था, उधर डाक-बँगले में साहब बहादुर गिलास पर गिलास चढ़ा रहे थे। शराब के ढालने की मधुर ध्वनि मेरे कानों में आकर चित्त को और भी व्याकुल कर देती। मुझसे बैठे न रहा गया। धीरे-धीरे चिक के पास गया और अंदर झाँकने लगा। आह ! कैसा जीवनप्रद दृश्य था। सफेद बिल्लौर के गिलास में बर्फ और सोडावाटर से अलंकृत अरुण-मुख कामिनी शोभायमान थी; मुँह में पानी भर आया। उस समय कोई मेरा चित्र उतारता तो लोलुपता के चित्रण में बाजी मार ले जाता। साहब की आँखों में सुर्खी थी, मुँह पर सुर्खी थी। एकांत में बैठा पीता और मानसिक उल्लास की लहर में एक अंग्रेजी गीत गाता था। कहाँ वह स्वर्ग का सुख और कहाँ यह मेरा नरकभोग ! कई बार प्रबल इच्छा हुई कि साहब के पास चल कर एक गिलास माँगूँ; पर डर लगता था कि कहीं शराब के बदले ठोकर मिलने लगे तो यहाँ कोई फरियाद सुननेवाला भी नहीं है।

मैं वहाँ तब तक खड़ा रहा, जब तक साहब का भोजन समाप्त न हो गया। मनचाहे भोजन और सुरा-सेवन के उपरांत उसने खानसामा को मेज साफ करने के लिए बुलाया। खानसामा वहीं मेज के नीचे बैठा ऊँघ रहा था। उठा और प्लेट लेकर बाहर निकला, तो मुझे देखकर चौंक पड़ा। मैंने शीघ्र ही उसको आश्वासन दिया- डरो मत, डरो मत, मैं हूँ।

खानसामा ने चकित होकर कहा- आप हैं वकील साहब ! क्या हजूर यहाँ खड़े थे?

मैं- हाँ, जरा देखता था कि ये सब कैसे खाते-पीते हैं। बहुत शराब पीता है।

खान.- अजी कुछ पूछिए मत। दो बोतल दिन-रात में साफ कर डालता है। 20. रु. रोज की शराब पी जाता है। दौरे पर चलता है, तो चार दर्जन बोतलों से कम साथ नहीं रखता।

मैं- मुझे भी कुछ आदत है; पर आज न मिली।

खान.- तब तो आपको बड़ी तकलीफ हो रही होगी?

मैं- क्या करूँ; यहाँ तो कोई दूकान भी नहीं। समझता था, जल्दी से मुकदमा हो जायगा, घर लौट जाऊँगा। इसीलिए कोई सामान साथ न लाया।

खान.- मुझे तो अफीम की आदत है। एक दिन न मिले तो बावला हो जाता हूँ। अमलवाले को चाहे कुछ न मिले, अमल मिल जाय तो उसे कोई फिक्र नहीं, खाना चाहे तीन दिन में मिले।

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